“साँझा चूल्हा”
हम भी रहे कभी
सयुंक्त भरे पूरे
परिवार का हिस्सा
एक छत के नीचे
साँझा चूल्हा ही
नहीं सुख दुख
सब कुछ साँझा
होता था।
रोटी, साग, आचार
मिल बाँट खा
कहकहे लगाते थे।
दिवाली हो या होली
गुजिया,पपड़ी ढेर
मिलकर पकाते थे।
राखी के त्योहार
पर बहनों के संग 
जैसे घर में मेला
लगता था।
समय का पहिया
ऐसा घूमा 
स्वाभिमान के
बीज ने अभिमान
के वृक्ष को
पाला पोसा।
छत के फिर हिस्से
हो गये दो -दो
कमरे सबको
बंट गये।
कुछ ने चूल्हे
अलग सुलगाये
कुछ गांव से
पलायन कर गये।
भारी मशक़्क़त हुई 
शहर की भीड़ में
दो जून की रोटी
के भी लाले पड़
गये पर गुरुर इतना
की कभी न पलटे
देखने उस 
आंगन में पड़ी
खाट पर बैठी
बूढ़ी माँ को
जो सोचे यही 
जाने ऐसी क्या
मज़बूरी
आयी जिस चूल्हे
ने जुड़े रखा वो
चूल्हे कैसे बुझ गये।
स्वरचित
शैली भागवत “आस”✍️
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

<p><img class="aligncenter wp-image-5046" src="https://rashmirathi.in/wp-content/uploads/2024/04/20240407_145205-150x150.png" alt="" width="107" height="107" /></p>