एक दिन…….
मंद मंद पवन का प्रवाह हो रहा था। नंदन वन में खिले पारिजात के पुष्पों की सुगंध से वातावरण महक रहा था। भगवान सूर्य का ताप मात्र इतना ही था कि शीत का अहसास न हो।साथ ही चंद्रमा असंख्य तारागणों के साथ नभ पर क्रीड़ा कर रहे थे। वैसे ये सब स्वर्ग लोक की रौजाना की बात थी। पुष्पों का कभी न मुरझाना, सम मौसम, कण कण में आनंद की अनुभूति का होना, रवि और शशि का एक साथ उदित होना, यही तो देवलोक का स्वरूप है। पर लगता है कि एकरसता में सुख की अनुभूति कम हो जाती है। बदलाव में ही कुछ नवीन मिलता है। नवीन पुष्पों का खिलना भी आवश्यक है और पुराने पुष्पों का मुरझाना भी। शीत भी आवश्यक है तो ग्रीष्म भी। रवि के अस्त होने के बाद शशि का उदय तथा इसके विपरीत भी आवश्यक है।
एक जैसा देखते देखते भले ही अन्य देवों को आनंद की अनुभूति कम हो चुकी थी। पर इस समय पुष्कर माली उस मानसिक बदलाव के दौर से गुजर रहा था जहाँ उसे किसी दिव्य आनंद की अनुभूति होती। देवलोक के राग रंगों के अतिरिक्त अब उसे जीवन की आध्यात्मिकता का आनंद मिल रहा था। यथार्थ में इन्हीं पवित्र आचरणों में खुद को लगा देने के कारण उसे देवलोक का सुख मिला था। जो अब उसे कचोटने लगा था। कुछ समय से कुण्डला के साथ में उसे वही आध्यात्मिक आनंद मिल रहा था जिसे शायद वह खो चुका था।
नंदन वन के एक कौने में कुण्डला अपने गान का अभ्यास कर रही थी। अभ्यास के दौरान वह अपनी खुशी के लिये गाती थी। और कुण्डला को भक्ति गीतों के गान में खुशी मिलती थी। ऐसे समय में जबकि और कोई देव उसके पास न होता, पुष्कर माली वहीं उसके पवित्र गान को सुनता।
कुण्डला का अभ्यास पूर्ण हुआ। अभी तक वह वाह्य जगत को भूली हुई थी। अब उसे पुष्कर माली की उपस्थिति का आभास हुआ। पुष्कर माली वहीं भूमि पर बैठ भगवान शिव की भक्ति में गाये उस गान को सुन रहा था। विचारों का झंझावात उसके मन में चल रहा था। पूरा जीवन वह भी तो भगवान शिव की भक्ति लगा हुआ था। अभी तक वह देवत्व प्राप्ति को अपने जीवन के पुण्यों का प्रभाव मानता है। पर अब उसके विचारों ने पलटा खाया। यदि देवत्व उसके जीवन के पुण्यों का प्रभाव है तो यह मन की बैचैनी किस तरह। जिन भोगों से जीवन भर खुद को बचाये रखा था, फिर उन्हीं भोगों में खुद को किस तरह बांध लिया। क्या यही देवत्व है। देवत्व तो ऊपर उठना है। पतन किस तरह देवत्व हुआ।
कुण्डला देख रही थी पुष्कर माली को। आज उसे भी एक देव कुछ विचलित नजर आया। दूसरों के मन के भावों को पढना कभी आसान नहीं होता है। पर प्रीति ऐसा ही मंत्र है। पुष्कर माली के प्रति अनुरक्त हृदय बाली कुण्डला अपने प्रेमी की मानसिक विकलता को अनुभव कर खुद विकल होने लगी।
” देव। यह क्या। मुझे तो लगा कि देव दुखी नहीं होते। पर आपके चेहरे की चिंता तो कुछ अन्य कह रही हैं। लगता है कि शायद देवों को भी कष्ट होता है।” काफी देर रुक कुण्डला ने ही प्रश्न किया। पुष्कर माली अभी तक मन की बैचेनी को समझ नहीं पाया था। अथवा शायद वह समझ नहीं पा रहा था कि वह अपनी मन की बैचेनी को किस तरह व्यक्त करे। चुपचाप अंतरिक्ष की गहराइयों को देखने लगा। मानों कि उन्हीं गहराइयों में वह अपने प्रश्नों का उत्तर तलाश रहा है। शायद अभी तक उसे विश्वास न था कि पूरे जीवन अध्यात्म मार्ग पर चले तथा अनेकों वर्षों देव रहे उसकी मन की विकलता का समाधान किसी कन्या के पास भी हो सकता है। शायद यही एक पुरुष का अपने पुरुषत्व का अहम है।
अंतरिक्ष में निरंतर देखते रहने पर, विभिन्न तारागणों में अपने प्रश्नों का उत्तर तलाश रहे देव को निराशा ही हाथ लगी। उसके मन के उत्तर अनुत्तरित रह गये।
” देव। इस दुख का क्या कारण। निश्चित ही देवों का मन भी असंतुष्ट होता है। केवल भोगों को भोगते रहने मात्र से कब कौन अमर बनता है। अमरत्व तो एक साधना है। जो लगातार उद्यम शीलता से ही तो मिलती है।”
कुण्डला की बात सुन अचानक पुष्कर माली विचारों के धरातल से वापस आया। एक नवीन विचार कि अनेकों वर्षों से खुद को अमर समझता आया, क्या वह अमर भी नहीं है। फिर उसके जीवन भर की वह साधना कहाॅ गयी। कहीं इस स्वर्ग के भोगों में मिट तो नहीं गयी। यदि कन्या का कथन सत्य है तो फिर लगता है कि उसने कुछ रंग बिरंगे कांच के टुकड़ों को पाने में अपना बहुमूल्य रत्न ही गंवा दिया। अनेकों वर्षों से वह जिन भोगों में आनंद को तलाश रहा था, वह आनंद तो कहीं से भी आध्यात्मिक आनंद की बराबरी नहीं कर पा रहे है। उसका देव होना व्यर्थ ही है। वह अमर भी नहीं है। आवागमन के चक्र से मुक्त तो वह नहीं है। सत्य है कि उसने देवत्व की चाह में उस अनमोल सुख को खो दिया है जो कि किसी भी साधक को आवागमन के चक्र से मुक्त कर देता है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’