तुम माधुरी, तुम कान्ता, तुम कामिनी
 तुम रागिनी, तुम बनिता, तुम सुंदरी, 
  एक नाम और है तुम्हारा, और वह है अबला… 
  पर आज के संदर्भ में इस नाम का औचित्य क्या है भला… 
  जब भी कोई विवाद होता तुमको ही झुकना होता था, 
  नौबत आती तो छोड़ना पड़ता था अपना घर द्वार। 
  छोड़ने पड़ते थे बच्चे, और छोड़ने पड़ते थे हर अधिकार। 
  हां वह अधिकार जो कहने को होते थे मेरे, 
  पर पर हकीकत में कुछ नहीं होता था आखिरकार। 
  पर नहीं अब और नहीं, क्यू हर बार मैं ही घर छोड़ कर जाऊँ, 
  क्यू मैं ही, परित्यक्ता कहलाऊ। 
  मै कोई त्यागी हुई वस्तु नहीं, मैंने ही तुम को छोड़ा है। 
  क्योंकि कदम कदम पर तुमने मुझको तोड़ा है। 
  पर अब और नहीं, मुझको अब मुझसे मिलना है, 
  फ़र्ज़ हर निभाउंगी, पर फर्ज के नाम पर पिंजरे में नहीं रहना है। 
  जो ख्वाहिशें , जो शौक दफन थे मेरे, 
  अब उनसे मिलना जुलना है। 
  मै नारी कोई अबला नहीं, 
  उन्मुक्त गगन का पक्षी बन अब जीना है। 
  मुझको अब मुझसे मिलना है, अब मुझसे मिलना है। 
  पुष्पा बंसल 
 ( स्वरचित)
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