चौके से कमरे, कमरे से चौके तक का, आगंन मेरा था।
आंगन से जो दिख जाता, बस इतना अंबर मेरा था ।
आंगन में झांकती नीम की डाली,
पतझड़ निर्वसन कर जाता। 
अपनी जड़ों के संबल से,
डाली पर यौवन छा जाता।
सिखा गई बाहर खड़ी नीम,
कितना भी पतझड़ आए,
खुदी अगर बुलंद हो तो पुनः मधुमास छा जाता।
आंगन से बाहर मुझको जाना है, 
कितना  विस्तृत है नभ, मुझको समझना है,
बहुत हुई निर्वसन, अपने हिस्से का बसंत मुझको अब पाना है। 
पुष्पा बंसल
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