विचलित मन है आज बहुत
यही सोच रहा
वर्तमान का भार उठाना
कितना भारी लग रहा…
मँहगाई का जमाना आया
जीवन जिसमें पिस रहा…
एक तरफ ये अम्बर संभाले
अनगिनत तारों का भार…
धरा पर तो गिने चुने इंसानों
को इंसान ही भारी लग रहा…
बढ़ती आवश्यक वस्तुओं की
कीमतों की आवाज़ हर तरफ…
आदमी की आवाजों को गोला
बारूद का धमाका बंद कर रहा….
तेल राशन की व्यवस्था करते
सिकुड़ रही है हृदय की सीमाएं…
अदृश्य कुछ सीमाओं को बचाने
मनुष्य अपना ही भूगोल बदल रहा..
आधारभूत आवश्यकताएं पूरी करने 
दल दल में फंसा ये मानव…..
समय चक्र अपनी गति पकड़े चले 
मौसम का बदलाव मुश्किल लग रहा….
धर्म, देश, मजहब के नाम की 
गूंज छाई जुबानों पर इस क़दर 
इंसानियत की अब न कोई
पहचान कायम करता लग रहा …
स्वरचित
शैली भागवत ‘आस’✍️
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