लगने लगा कि शायद आज माॅ शारदा खुद अपने कंठ से गान कर रही हों जिस गान के माधुर्य में सारा त्रिलोक ही झूमने लगा हो।
नारी, कब तुम अबला
नारी, तुम हो सबला
रवि रथ पर जो अग्र विराजें
घोर तिमिर लख जिनको भाजे
भानुप्रिया हैं देवी ऊषा
कैसे उनको समझूं अबला
नारी, कब तुम अबला
नारी, तुम हो सबला
यम के पीछे जाने बालीं
मृत्युद्वार से पति लाने बालीं
सत्यवान की भार्या सावित्री
कैसे उनको समझूं अबला
नारी, कब तुम अबला
नारी तुम हो सबला
श्री हरि चरणों से जो जन्मीं
जग के पाप ताप जो हरतीं
सगर सुतों को तारण हारी
कैसे त्रिपथगामिनी अबला
नारी, कब तुम अबला
नारी तुम हो सबला
महत तपस्या करने बालीं
शिव की जो अर्धांगिनी प्यारी
पुत्री शैल और स्कंद मात जो
कैसे हैं वह अबला
नारी, कब तुम अबला
नारी, तुम हो सबला
बृह्मपाप दग्ध पुरंदर
कामी नहुष नहीं प्रतिउत्तर 
बुद्धि शक्ति सतीत्व बचाती
कैसे शची हुईं फिर अबला
नारी, कब तुम अबला
नारी, तुम हो सबला 
तीन लोक में त्रास बड़ी है
धर्म त्रास, भयभीत घड़ी है
आदिशक्ति का रूप कहाती
नारी तुम हो सबला
नारी, कब तुम अबला
नारी, तुम हो सबला
कुण्डला का गान बंद हुआ। कुछ समय शांति रही। मानों कुण्डला का प्रयास विफल हो गया हो। उसके गान पर किसी की भी प्रतिक्रिया का न होना तो यही सिद्ध करने लगा कि अभी कुण्डला को बहुत प्रयास करने होंगे। पर शायद यह शांति तूफान से पूर्व की शांति थी। 
   भगवान सूर्य के रथ पर उनसे आगे बैठी देवी ऊषा की ध्वनि वातावरण में सुनाई दी 
  ” सचमुच नारी कभी अबला नहीं है। वास्तव में नारी ही सबला है। वही तो शक्ति है।” 
  आकाशगंगा से आवाज आयी। 
  ” हाॅ। यह सत्य है कि नारी को अबला मानना पुरुष का एक भ्रम है।” 
  कैलाश शिखर से माता पार्वती की ध्वनि उठी। 
” नारी को अबला समझना पुरुष की भूल है। अब अपनी शक्ति प्रदर्शित करना नारी के लिये अपरिहार्य है। न केवल खुद के लिये अपितु सृष्टि के लिये भी।” 
  माता शारदा का स्वर 
” यदि यह सत्य है कि वाणी से ही किसी को जीता जा सकता है तो मनुष्यों की वाणी का प्रतिनिधित्व करने बाली मैं कह सकती हूं कि वास्तव में नारी निर्बल तो नहीं है। “
  इंद्र की पत्नी देवी शची की आवाज 
” नारी प्रायः अपनी शक्ति को भूली रहती है। अथवा सत्य तो यही है कि वह पुरुष को मान देती रहती है। अक्सर नारी द्वारा मान पाते पाते पुरुष उसे अबला समझने लगता है। सत्य है कि यही सबसे बड़ी भूल है। नारी कभी भी अबला तो नहीं। “
  दसों दिशाओं से ” नारी कब तुम अबला, नारी तुम हो सबला “के स्वर गूंजने लगे। 
   सृष्टि के आरंभ से ही पुरुष को शक्ति का पर्याय समझते आये देव आज शक्ति स्वरूपा माता आदि शक्ति की आराधना करने लगे। 
” माता। सत्य है कि हम भूल कर रहे थे। सत्य है कि नारियों को अबला मानते आने का हमारा विश्वास गलत ही था। सत्य है कि इस समय आपदा से हमारी और सृष्टि की रक्षा कोई भी पुरुष नहीं कर सकता है। 
  माता हमेशा दयालुता का दूसरा रूप कही जाती हैं। परम दयालु माता। हम पुरुषों पर दया कीजिये। इस महान आपदा से हमारी रक्षा कीजिये। 
   माता। हम सच्चे मन से स्वीकार करते हैं कि हम पुरुषों को मान देती आयीं स्त्रियां कभी भी अबला नहीं हैं। जिन आदिशक्ति की शक्ति से यह सृष्टि संचालित होती है, उन्हीं आदिशक्ति का प्रतीक नारियां निश्चित ही शक्ति स्वरूपा हैं।
   भले ही असुरों को हम जीत नहीं सकते। भले ही असुर हमारा और सृष्टि का अहित कर रहे हैं। पर सत्य है कि इस बार असुरों ने सृष्टि का अहित नहीं अपितु हित ही किया है। पुरुषों के मन में स्थायी जगह बना चुके अहंकार को नष्ट किया है। 
  आज शक्तिहीन हम पुरुष आपकी प्रार्थना कर रहे हैं। माता। हम पर उदारता दिखायें। हमारी प्रार्थना स्वीकार कर हमें दर्शन दे कृतार्थ करें। “
   देवों के मन से पुरुषत्व का मिथ्या अहंकार मिट चुका था। माता आदिशक्ति की आराधना वे शुद्ध मन से ही कर रहे थे। पर लगता है कि माता आदिशक्ति अभी देवों पर प्रसन्न नहीं थीं अथवा संभव है कि उस समय माता आदिशक्ति को देवों की प्रार्थना के स्थान पर किसी अन्य की प्रार्थना को प्रमुखता देना पसंद आया हो। 
  कर्म और भोग दोनों में बराबर अधिकार रखने बाले मनुष्य को हमेशा केवल भोगों में अधिकार रखने बाले देवों से श्रेष्ठ माना गया है। फिर यदि कोई मनुष्य बहुत समय से नियमपूर्वक माता आदिशक्ति की आराधना कर रहा हो, उस समय से जबकि सृष्टि में वह संकट आया ही न हो जिस कारण आज विभिन्न देव माता आदिशक्ति की आराधना कर रहे हैं, तो निश्चित ही उस मनुष्य का अधिकार देवों के अधिकार से अधिक बन जाता है। माता आदिशक्ति देवों की आराधना की अवहेलना कर उस तपस्वी की तरफ बढ रही थीं जिसने महिषासुर के साथ ही तपस्या आरंभ की थी। भले ही उस तपस्वी की तपस्या अधिक समय में फलीभूत होने जा रही थी, भले ही उस तपस्वी की कामना भी अज्ञात थी, फिर भी किसी देव की आराधना के स्थान पर वह बहुत काल से माता आदिशक्ति की आराधना कर रहा था। उसका यही व्यवहार उसे अनेकों तपस्वियों से भिन्न कर रहा था। भले ही एक साथ आरंभ हुई विभिन्न घटनाओं में कोई साम्य नहीं दिखता है, पर संभावना है कि ये सारी घटनाएं एक दूसरे से जुड़ी होती हैं। सत्य है कि प्रकृति प्रत्येक संकट का निराकरण कर लेती है। प्रकृति को भविष्य के संकट की पूर्व अनुभूति होने लगती है। तथा प्रकृति भी संकट के आगमन से पूर्व ही उस संकट के निराकरण का प्रयास करने लगती है। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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