कार्य पूरा करने की दर ही केवल किसी कार्य को महान नहीं बनाती, अपितु उस कार्य के पीछे का हेतु ही उस कार्य को श्रेष्ठ बनाता है। कोई महल भले ही अति शीघ्र तैयार हो जाये पर विभिन्न सौंदर्यपूर्ण कलाकृतियां तैयार होने में बहुत समय लगता है। उसी सौंदर्य के कारण वह महल चिर काल तक याद रखा जाता है।
कच्छप भी एक न एक दिन अपना लक्ष्य पा लेता है। तपस्वी को तपस्या आरंभ किये बहुत समय हो चुका था। वह अपने प्राणों की यथायोग्य रक्षा कर अपने पथ पर बढता रहा था। एक मनुष्य के सामर्थ्य की तुलना कभी भी किसी देव या असुर के सामर्थ्य से नहीं की जा सकती है। यदि मनुष्य इस तरह की अनधिकार चैष्टा करने लगे तो निश्चित ही अपने प्राण गंवा देगा। फिर उसका उद्देश्य अपूर्ण रह जायेगा।
यद्यपि अध्यात्म मार्ग के साधकों के मन में प्राणों का कोई भी मोल नहीं होता। प्रधानता उद्देश्य की होती है। पर सत्य यह भी है कि निष्पाण हुए शरीर से उद्देश्य प्राप्ति की आशा व्यर्थ है।
जैसे कि किसी वीणा के स्वर की मधुरता के लिये केवल वीणा के तारों को कंपन ही आवश्यक नहीं है, अपितु आवश्यक है कि उन तारों को कितनी शक्ति से कंपन कराया जाये। अधिक शक्ति से तारों का कंपन उन तारों को ही क्षतिग्रस्त कर देते हैं।
मुरली से सुमधुर स्वर तभी निकलता है जबकि उचित शक्ति से फूंक मारी जाये। अधिक शक्ति से दी गयी फूंक न केवल मुरली की ध्वनि को बेकार कर देती है अपितु मुरलीवादक के कंठ को भी बेकार कर देती है।
अचानक गगन आलौकिक प्रकाश से प्रकाशित हो गया। भले ही वह तेज सैकड़ों अथवा हजारों सूर्य के प्रकाश के समान था फिर भी साधक के नैत्रों को कष्ट नहीं दे रहा था। उसी दिव्य प्रकाश के मध्य माता आदिशक्ति की दिव्य मूर्ति उभरी। विशाल सिंह पर आरूढ, हरित वर्ण की साड़ी पहनीं, सर पर लाल चुंदरी ओढे, सात हाथों में चक्र, तलवार, त्रिशूल, धनुष, वाण, गदा, पुष्प धारण किये तथा एक हाथ से आशीर्वाद की मुद्रा में माता आदिशक्ति की सुंदरता वातावरण को दिव्य बना रही थी।
” श्रेष्ठ ब्राह्मण। तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई। तुम्हारे मन में जो भी कामना हो, वह कह सकते हों।”
विप्र ने आंखें खोलीं। सर्वप्रथम माता के चरणों में प्रणाम किया। फिर अर्गला स्तोत्र का पाठ कर माता की दिव्यता सुनाने लगा। अंत में उसने अपनी कामना व्यक्त की।
” माता। निश्चित ही मनुष्य निष्काम नहीं बन सकता। निश्चित ही आपके दर्शनों की कामना से ही मैं अनेकों वर्षों आपकी आराधना कर रहा हूं। वैसे यह कहना भी पूर्ण सत्य नहीं है कि मुझे कोई सांसारिक कामना नहीं है। संसार में रहते हुए सांसारिक कामना से मनुष्य कब मुक्त होता है।
माता। मैं निःसंतान हूं। मेरी स्त्री को गांव की स्त्रियां बांझ कहकर बुलाती हैं। वह दुख सहन करना अति कठिन रहा है।
माता। मेरी कामना है कि मेरी स्त्री एक कन्या को जन्म देकर मेरे जीवन के निःसंतानता के दुख को दूर करे। उस कन्या को उचित शिक्षित कर, उसका लालन पौपण कर मैं अपने पितृधर्म का पालन करूं। “
” पर कन्या क्यों। अधिकांश तो पुत्र की ही कामना करते हैं। निःसंतान होकर इतनी आराधना का फल एक कन्या। जो कि विवाहित हो अपनी ससुराल चली जायेगी। फिर बुढापे में कौन देखभाल करेगा। ” माता आदिशक्ति तपस्वी की कामना सुन आश्चर्य में थीं। तपस्वी जो वर मांग रहा था, वह व्यवहार की कसौटी पर कुछ उचित नहीं लगा। एक बार साधक को सावधान करना अनिवार्य है।
” माता। यह सत्य है कि प्रत्येक जीव अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है। बुढापे में पुत्र से सेवा लेने की इच्छा भी पूरी तरह उचित नहीं। वैसे भी हमारा सामाजिक संगठन इसी सिद्धांत को मानता रहा है कि मनुष्य को अपना अंतिम समय दुनिया से दूर ईश्वर आराधना में बिताना चाहिये।
माता। पुत्र की इच्छा भले ही अधिकांश को हो। पर मुझे तथा मेरी पत्नी को एक कन्या की ही इच्छा है। माता। सत्य तो यही है कि एक कन्या हमेशा अपने माता पिता से निस्वार्थ प्रेम करती है।
माता। मैं बचपन से ही देखता आया हूं कि कन्या को देवी रूप मानते आये हमारे समाज का आचरण वास्तव में भेदभाव पूर्ण है। केवल पुत्रों के प्रेम में अधिकांश कन्या उपेक्षा पूर्ण जीवन जीती रहती हैं। वे अपने माता-पिता के प्रेम को तरसती रहती हैं। उन्हें शिक्षा के पर्याप्त अवसर भी नहीं मिलते।
माता। मैं एक कन्या का पिता बन समाज में व्याप्त धारणाओं का खंडन करना चाहता हूं। मैं समाज को दिखाना चाहता हूं कि अवसर मिलने पर बेटियां कभी भी बेटों से कम नहीं होतीं। केवल पुत्र ही माता पिता का यश नहीं फैलाते। शिक्षा की ज्योति से आगे बढती बेटियां भी माता पिता के यश को बढाती ही हैं। सत्य है कि मैं बेटा और बेटी के भेद को मिटाना चाहता हूं।
माता। मैं नहीं जानता कि मेरा यह प्रयास समाज को पूरी तरह बदल पायेगा अथवा नहीं। फिर भी मैं खुद एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूं। निश्चित ही सभी को तो नहीं, पर अनेकों के विचार को तो मैं बदल ही दूंगा। फिर माता। मेरी निःसंतानता दूर करने के लिये मुझे एक बेटी का वर दीजिये। यही मेरी और मेरी पत्नी की सम्मिलित कामना है। “
विप्र एक बार फिर से माता के चरणों में लोट गया। माता का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उत्तम सोच का फल निश्चित ही उत्तम होता है। अनेकों बार उत्तम सोच का फल सर्वोत्तम भी हो जाता है। इतना सर्वोत्तम कि एक सांसारिक कामना उनकी मुक्ति का भी मार्ग बन जाती है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’