दिल्ली की निर्भया की मां के संघर्ष पर एक कविता जिसने दरिंदों को फांसी के फंदे तक ले जाकर छोड़ा । उस मां को एक सलाम तो बनता है । दो वर्ष पूर्व लिखी गई  मेरी कविता 
सवा सात साल का वक्त कोई कम नहीं होता।
हर किसी में लड़ने का इतना दम नहीं होता।।
अन्याय के विरुद्ध लड़ाई की तू एक मिसाल बन गई।
निर्भया की मां पूरे भारत की मां बेमिसाल बन गई ।।
दर दर भटकी , अपमानित हुई, अनगिनत ठोकरें खाई ।
इंसाफ के हर मंदिर में जाकर लगातार घंटियां बजाई ।।
कभी सरकार से, न्यायालय और मीडिया से गुहार लगाई।
जनता ने भी सोशल मीडिया पर इंसाफ की मुहिम चलाई ।।
दरिंदे भी कोई कच्चे खिलाड़ी नहीं पूरे शातिर निकले।
जायज नाजायज सब तरह के हथकंडे उन्होंने खेले ।।
एक महिला होकर भी जो महिला की पीड़ा समझ नहीं पाई।
सुप्रीम कोर्ट की एक वकील दरिंदों को बचाने सामने आई।।
अपनी पत्नी से तलाक दिलाने का नाटक भी रचा गया ।
बचाव के लिए तरकश का हर एक तीर बखूबी चला गया।।
कुशल खिलाड़ी की तरह हर पेंतरा आजमाया गया।
फांसी का विरोध करने एक जज को भी सामने लाया गया।।
पर, कहते हैं कि बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी ।
एक ना एक दिन एक मां की दुआ रंग जरूर लायेगी ।।
आखिर में न्याय के कलैंडर का आज वो दिन आ ही गया ।
जब उन दरिंदों को आज के दिन फांसी पर लटकाया गया ।।
दुशासन के खून से जैसे द्रोपदी ने अपने बाल धोये थे ।
वैसे ही भारत की बेटियों की मां ने अपने हाथ धोये थे।।
हर आदमी को अपने हक के लिए लड़ना सीखना होगा ।
अन्याय के विरुद्ध कमर कस के खड़ा होना सीखना होगा ।।
अफसोस कि एक दरिंदा नाबालिग होने का लाभ ले गया 
वोटों के एक सौदागर से मशीन और दस हजार रु. ले गया 
ऐसे लालची, धूर्त, मक्कार नेताओं को सबक सिखाना होगा 
अपराध मुक्त भारत के लिए इन्हें अपने घर में बैठाना होगा 
हरिशंकर गोयल “हरि”
 
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