” हँसी छीन ली होंठों की तुम इतने गम क्यों पीते हो।
क्यों जीवन की इस बगिया में यू घूट-घूट कर जीते हो।।
क्यों जीवन से मोह नहीं है तुम को अपने बोलो तो।
क्यों महफ़िल में खामोशी है तुम इतने क्यों रीते हो।।
तुमको खुद की फ़िक्र नहीं क्यों, मुझको इतना बतलाओ।
अंतर्मन के ज्वार को कैसे तुम अश्कों सा पीते हो।।
ख़ामोशी का चादर ओढ़े क्यों गुमसुम तुम रहते हो।
दर्द को अपने हंसी के पीछे बोलो क्यों तुम सीते हो।।
मुझसे हो नाराज़ अगर तो मुझे बताओ सजा मेरी
मेरी गलती की सजा में खुद को क्यों तुम छलते हो।”
अम्बिका झा ✍️