कुण्डला का पृथ्वी लोक में रहने का उद्देश्य पूर्ण हो चुका था। शेष जीवन वह ईश्वर भक्ति में गुजारने का निश्चय ले चुकी थी। विन्ध्यवान उसे अपने साथ गंधर्व लोक ले गये। वहीं गंधर्व लोक में वह भक्ति संगीत की रचना कर अपना समय गुजार रही थी। कुण्डला का गंधर्व लोक में बहुत आदर था। आखिर माता आदिशक्ति की कृपा जिसे मिली, उसका सम्मान कौन न करता। गंधर्व राज विश्वावशु का कुण्डला के प्रति पुत्री जैसा व्यवहार था। तथा गंधर्व राज की पुत्री मदालसा के लिये तो कुण्डला ही जीने का आधार थी। वैसे मदालसा आयु में कुण्डला से बहुत छोटी थी। कुण्डला एक साथ मदालसा की बड़ी बहन, गुरु, और सखी भी थी। निश्चित ही मित्रता आयु, वर्ग, सामाजिक स्थिति, धर्म, लिंग की मान्यताओं से बहुत आगे होती है। मित्रता किसी के प्रति समर्पण और अधिकार दोनों है।
   कुंती के ज्येष्ठ पुत्र कर्ण और दुर्योधन की मित्रता, कृष्ण और सुदामा की मित्रता, कृष्ण और अर्जुन की मित्रता तो जग जाहिर है। मित्रता की कहानियों में कृष्ण और द्रोपदी की मित्रता की भी अनोखी गाथा है जबकि श्री कृष्ण अपनी सखी के सम्मान की रक्षा करते हैं। राम और लक्ष्मण वैसे तो सगे भाई थे। पर उनका संबंध बहुत हद तक मित्रता का भी था।
   नीति कहती है कि पति और पत्नी को आपस में मित्रता का व्यवहार रखना चाहिये। जिसमें अधिकार और कर्तव्य का संगम होता है। पता नहीं कि पत्नी को दासी मानने की धारणा का जन्म कैसे हो गया।
   नीति यह भी कहती है कि युवा होते पुत्र के साथ पिता को भी मित्रता का ही व्यवहार करना चाहिये। अधिक अनुशासन युवा होते पुत्र को विद्रोही बना सकता है। पिता और पुत्र की मित्रता प्रायः युवा पुत्र को कुसंगति से भी बचाती है।
   किसी भी विवाहिता स्त्री के लिये पति का साथ छूट जाना बहुत बड़ा दुख है। पता नहीं कि विधवा स्त्री को अनेकों नियमों से बांधने की परिपाथी का आरंभ कैसे हुआ। दुखों के सागर में डूबी स्त्री को और भी अधिक दुख देने का क्या औचित्य।
   माना जा सकता है कि विधवा स्त्री को वैराग्य पथ पर बढाने के लिये उसे संसारिक सुखों से दूर किया जाता है। पर वैराग्य तो मन का विषय है। सांसारिक सुखों को यत्न पूर्वक दूर कर देने के बाद भी वे सुख मन को लुभाते रहते हैं। पहले से ही दुखी को उन सुखों का अभाव और भी अधिक दुखी करता है। केवल राम राम रटने रहने से कोई भी शुक तपस्वी नहीं बन जाता। सत्य तो यह तो यह भी है कि संसार के सुखों को त्यागने का दावा करने बाले अनेक वैरागी भी मन ही मन उन्हीं भोगों के सागर में डूबते रहते हैं। उनका जबरदस्ती का वैराग्य कभी भी नष्ट हो जाता है।
   दूसरी तरफ संसार में रहने बाले, सांसारिक भोगों का उपयोग करने बाले अनेक गृहस्थ भी परम वैरागी होते हैं। राजा जनक के समान संसार में रहकर भी संसार से विरक्त रहते हैं।
   संभव है कि उस काल में विधवा स्त्रियों पर अधिक बंधन न रहा होगा। वे अपने मन से जीवन जी सकती होंगीं।
   गंधर्व लोक में देव पुष्कर माली की विधवा पत्नी कुण्डला मन में वैराग्य रख पर ऊपर से मदालसा के साथ हसती खेलती रह रही थी। जब मदालसा रंग बिरंगी तितलियों के पीछे भागती तब कुण्डला भी उसी के समान बच्ची बन तितली पकड़ती। उपवन में तितलियाँ पकड़कर छोड़ देना, सुगंधित पुष्पों की गंध सूंघना, पक्षियों की बोलियों की नकल करना, विभिन्न बाल सुलभ क्रीड़ा करना दोनों की दिनचर्या का भाग बन चुका था। दिन हो या रात, मदालसा हमेशा कुण्डला के साथ रहती। मदालसा के साथ कुण्डला अपना दुख भूल जाती तो कुण्डला भी मदालसा से जीवन की विभिन्न शिक्षाएं पा रही थी। कुण्डला के साथ खेल खेलते खेलते तथा कुण्डला से कहानियाँ सुनते सुनते मदालसा का मन वास्तव में वैराग्य के उस उच्च शिखर तक पहुंच चुका था जिस तक पहुंच पाना बड़े से बड़े साधक के लिये असंभव होता है। यही सत्संगति का प्रभाव है कि परम वैरागी कुण्डला के साथ ने मदालसा के मन को भी वैरागी बना दिया। राजा जनक के समान संसार में रहकर संसार से वैराग्य की कला मदालसा सीख रही थी। सत्य है कि बाल मन एक कच्चे घट के समान होता है। जिसे संस्कारों में आसानी से ढाला जा सकता है। 
   यदि संसार पथ का आरंभ प्रेम है तो इसका लक्ष्य निश्चित ही वैराग्य की प्राप्ति। भले ही मन बचपन से ही वैराग्य की सर्वोच्च अवस्था तक पहुंच चुका हो पर जीवन का आरंभ तो प्रेम से ही होता है। प्रेम मार्ग पर चलते चलते वैराग्य के लक्ष्य को पाना होता है। न केवल खुद अपितु प्रेमी को जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य तक पहुंचाना, उससे बहुत आगे बच्चों को भी बचपन में ही वैराग्य के संस्कार दे देना, निश्चित ही आसान नहीं। पर एक स्त्री वही करती है जो आसान नहीं। स्त्री के लिये कठिन क्या। वैराग्य के पथ पर चलकर केवल खुद का उद्धार करना कभी भी स्त्रियों का उद्देश्य नहीं हो सकता है। स्त्रियाँ तो हमेशा बड़ा सोचने और करने के लिये जन्म लेती हैं। खुद की धारणा से आगे पति, पुत्र और समाज को भी सही राह दिखाती हैं। खुद से आगे सोचने और करने के लिये स्त्रियां आधार बनाती हैं प्रेम को। निश्चित ही प्रेम ही वह घटक है जो बड़े बदलाव का आधार बनता है। फिर जन्म लेती है एक प्रेम कहानी जो पूरी तरह सांसारिक प्रेम से आरंभ होकर वैराग्य के लक्ष्य को प्राप्त करती है। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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