मां तू कण-कण में;
जीवन के हर क्षण में;
मेरे तन के….
कोशा-द्रव में;
प्रतीत होती है;
कहां खोजें और तुम्हें;
इस मन से
तू दूर कहां होती है!!
इन अंखियों के विह्वलता में;
हर पल झांकती होती है;
मां तू मुझसे दूर होकर
मेरे अंतःकरण में छा गई;
तेरी खुशबू बन हवा जब
मुझे सिहरन देती है;
तुम मुझे अपने ईर्द-गिर्द ही प्रतीत होती है।
इस मन से तू दूर कहां होती है!!
हां तू बिखर गई पंच तत्वों में;
मैं अब इन्हें ही शीश नवाती हूं
इनमें ही तूझे ढूंढती हूं।
जब तू गहरी निन्द से जाग
चेतना का प्रवाह पाएगी
क्या तू मुझसे मिलना चाहेगी?
✍डॉ पल्लवी कुमारी”पाम “