मेरा रंग दे बसंती चोला, मेरा रंग दे ,मेरे रंग दे बसंती चोला –
24 मार्च 1931 की सुबह लोगों में एक अजीब सी बेचैनी थी । एक खबर लोग आसपास से सुन रहे थे और उसका सच जानने के लिए लोग यहां वहां भागे जा रहे थे, और अखबार तलाश रहे थे।
यह खबर थी सरदार भगत सिंह और उनके दो साथी सुखदेव और राजगुरु की फांसी की। उस सुबह जिन लोगों को अखबार मिला उन्होंने काली पट्टी वाली हेडिंग के साथ यह खबर पड़ी कि भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में पिछली शाम सोमवार को 7:33 पर फाँसी दे दी गई।
केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने के जिस मामले में भगत सिंह को फांसी की सजा हुई थी उसकी तारीख 24 मार्च तय की गई थी। लेकिन उस समय पूरे भारत में इस फांसी को लेकर जिस तरह से प्रदर्शन और विरोध जारी था उससे सरकार डरी हुई थी। और उसी का नतीजा रहा कि भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु को चुपचाप तरीके से तय तारीख से 1 दिन पहले ही फांसी दे दी गई । फांसी के समय जो कुछ अधिकारी लोग शामिल थे – उनमें से एक यूरोप के डिप्टी कमिश्नर भी शामिल थे। जितेंद्र सान्याल की लिखी किताब ‘भगत सिंह’ के अनुसार ठीक फांसी पर चढ़ने के पहले के वक्त भगत सिंह ने उनसे कहा – ‘मिस्टर मजिस्ट्रेट आप बेहद भाग्यशाली हैं कि आपको यह देखने को मिल रहा है कि भारत के क्रांतिकारी किस तरह अपने आदर्शों के लिए फांसी पर भी झूल जाते हैं ‘।
यह भगत सिंह के आखिरी वाक्य थे। लेकिन भगत सिंह, सुखदेव ,राजगुरु की मौत के बारे में सिर्फ इतना जानना कि उन्हें फांसी हुई थी या तय तारीख से 1 दिन पहले हुई थी काफी नहीं होगा। आगे पढ़िए की 23 मार्च की उस शाम को हुआ क्या था?
23 मार्च 1931 को शाम करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी पर जाने से पहले वह लेनिन की जीवनी ही पढ़ रहे थे।
“जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा- “ठहरिये ! पहले एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल तो ले”। फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कल बोले – ठीक है अब चलो”।
फांसी पर जाते समय भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु तीनों मस्ती से गा रहे थे “मेरे रंग दे बसंती चोला ,मेरा रंग दे ,मेरा रंग दे बसंती चोला। माय रंग दे बसंती चोला। ।
फांसी के बाद कहीं कोई आंदोलन न भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये, जहां मिट्टी का तेल डालकर इनको जलाया जाने लगा। गांव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आए। इससे डरकर अंग्रेजों ने उनकी लाश के अधजले टुकड़े को सतलुज नदी में फेंका और भाग गए। जब गांव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़े को एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया।
क्रमशः
गौरी तिवारी
भागलपुर बिहार