कविवर की पत्नी जी, करती हुई कोप।
कवि और कविता पर, मढ़ दिए आरोप।
सुनिए ! बहुत हुआ, अब न सह पाऊंगी।
अब मैं अदालत की,चौखट पर जाऊंगी।

मुझसे भी ज्यादा है, कविता से प्यार।
कविता ने कर दिया, अब जीना दुश्वार।
सचमुच ‘हमराही’ ने, ठोक दिया केस।
मढ़े आरोप सारे, एक भी न रहा शेष।

सच बोलो गीता पर, आप हाथ रखकर।
कौन है ये कविता? और क्या है चक्कर?
सुनिए जज साहब, मिथ्या नहिं बोलना।
कविता तो है मेरी, पूजा, आराधना।

इतना सुन पत्नी, चिल्लाई हाय राम!
देखो अब उगल रहे, और भी दो नाम।
समझ गए जज साहब, और मुस्कुराए।
पत्नी की सोच पर, कुछ न कह पाए।

बोले- जज साहब, काम बड़ा मुश्किल।
सृजनशील कविगण,लिखते बमुश्किल।
हर कवि की मानस, पुत्री है कविता।
मत रोको बहने दो, काव्यमयी सरिता।

मौलिक/
अमर सिंह राय
नौगांव, मध्यप्रदेश

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