सुबह जब सूरज और थोड़ा उपर उठता है तो अपनी तेज गर्म किरणें अनायास ही बिखेरने लगाता हैं। उसी तप्त किरणों ने तुरन्त देव की मिठी नींद पर आक्रमण कर धावा बोल दिया। और उनकी मिठी नींद अब टुटने वाली थी। भोर की सुनहरी हल्की पिली किरणें, खिड़की के पर्दों के कोने से देव के गालों पर लुका-छिपी खेल रहे थे।

 उसकी बिना शेविंग की, जो थोड़ी-सी बढ़ गई थी। उसकी मुलायम बालों वाली दाढी‌, मानो वो सुनहरी किरणों से चमक-चमक के दमक रही थी। और उसके रेशमी मुलायम बाल, हर करवट पर जैसे सोनपापड़ी की परतें निकलती है ठीक उसी तरह होले होले से निकल रहे थे।            

जैसे कमल पुष्प की पंखुड़ियों की तरह एक उपरान्त एक निकल के खिल रही थी। मानो, किसी नई किताब के पन्ने हवा के झोंको से खुलते ही बाएं से दाएं खिसक कर खूल गये हो। उसका उज्ज्वल चेहरा किसी ऋषि-मुनियों की तरह तेजस्वी और ओजस्वी लग रहा था, और उसे उस अवस्था में देखना भी एक सुखद सा अनुभव था।

जैसे-जैसे सुरज का ताप बढ़ने लगा। देव करवटें बदलने लगा। लेकिन इन सुनहरी किरणों को मानों उसकी नींद में खलल ही डालना था। उसने न चाहतें हुऐ अपनी आंखें हल्की सी खोल दी।

ऐसा लगा मानों किसी गुलदस्ते से भिनी-भिनी खुशबू आ रही है। फिर एक दो बार उसने अपनी आँखें खोलीं और बंद कर लीं। वह फौरन उठा और बिस्तर पर बैठ गया। और उसने आसानी से दोनों हाथों को अपने चेहरे, माथे, आंखों, गालों और दाढ़ी पर गोलाकार गति में घुमाया। और एक गहरी सांस ली और आगे देखा।

सामनेवाले दिवार पर डिजिटल वाॅच में सुबह के साढ़े पांच बज रहे थे। उसने हाथ उठाकर थोड़ा मीठा एक अंगड़ाई के साथ बदन को एक झटका दिया। और वह अपने पैरों पर रखी चद्दर हटाकर उठ खड़ा हुआ। और वह नीचे रखीं वाॅशरूमवाली नरम गुलाबी चप्पल पहन के, सीधा नहाने चला गया। उसने एक बार बाथरूम में आईने में खुद को देखा, और उसके आंखों में आजिब सी कशीश थी। कोई गहरी बातें थी।

 और टूथब्रश से अपने दाँत ब्रश करना शुरू कर दिया, और तुरंत स्नान करने चला गया। शोवर जैसे ही चालू किया, पुरे बदन मे एक सिहरन सी दौड़ने लगी। अंग अंग में ऊर्जा का संचार हुआ। मन गुलाब की कलियों की तरहां प्रफुल्लित और तरोताजा हो गया।  एक पल के लिए, मुझे लगा की, तुलसी पानी मिलने से वो कितनी ताजगी महसूस कर रही होंगी।, जिसे एक दिन पानी नहीं दिया गया था। और अब वो ताजगी से भर गई है। ठीक वैसा ही फिल पल भर में आया। 

  नहाने के बाद वह गीले पैरों के साथ चला आ रहा था। उसके पैरों से टपकता पानी फर्श को भिगो रहा था, फिर उसने अपना हाथ स्टील के हेंगर पर रखा, और तौलिया खींचकर अपनी कमर के चारों ओर लपेटा लिया। और आईने के सामने खड़ा हो गया। और एकटुक खुद को ही आश्चर्य जनक तरीके से देखने लगा।फिर खिड़की से आती हवाओ से, उसकी समाधी टुटी। उसने एक छोटे से तौलिये से अपने बालों को हल्के से पोंछना शुरू कर दिया।  उसने तुरंत दोनों हाथों पर छोटा तौलिया पकड़ लिया और अच्छे से मर्दानगी भरी जोश से अंगों को अच्छे-से पोंछ दिया।

“देवधर! तुम्हारा नहाना हो गया है, तो नीचे आओ नाश्ता लगा है। और हां! नाश्ता खाकर ही आफिस जाना, खाली पेट मत जाना वरना पुरा दिन ठीक से नहीं जायेगा,” समझें क्या?”।,”हां ! मां, समझ गया, हर रोज सुन-सुन के अब मुझे ये याद भी हो गया है।”, देव ने सिढीयो से उतरते हुते कहां।

“देवधर! तुम हररोज बिना नाश्ता कीये, आफिस मत जाया करो, मुझे अच्छा नहीं लगता।”,
“मां ! तुम मेरी इतनी चिंता मत किया करो।”
अच्छा बाबा उसे जाने दो! जरा इसे देखो तो, मैंने तुम्हारे लिए एक लड़की देखी है। फोटो देख के बताओ तो लड़की कैसी लग रही है। मुझे तो चांद का टुकड़ा लग रही है। हाय रब्बा किन्नी सोणी कुड़ी है। “

” चांद का टुकड़ा है तो गौर से देखो मां, कही चांद पर दाग तो नहीं है। नहीं-नहीं मैं ऐसे दाग वाले चांद से शादी नहीं कर सकता। मैं तो कुंवारा ही ठीक हूं। और मुझे अभी शादी में दिलचस्पी भी नहीं है। “
” लो देख लो जस्सी पुत्तर, शादी भी कोई दिलचस्पी वाली चीज है क्या?”
“हां! मां मुझे तो लगता है की, देव भैया को तो लडकीयों में ही दिलचस्पी नहीं है।”
“देख जस्सी सुबह-सुबह मुझ से पंगा मत ले, वरना तू बहुत पछतायेगी।”
“अच्छा अब तूम ये झगड़ा बंद करो और देव अब तुम्हे देरी नहीं हो रही है आफिस के लिए।”
“हां ! मां देर हो गई है अब मुझे चलना चाहिए, इस जस्सी को तो मैं शाम में आके फिर देख लुंगा। अच्छा मां मैं अब चलता हूं।”
“भैया! मैं तुम्हारा शाम में इंतजार कर रही हूं। जल्दी आना।”
“ओय! जस्सी ऐसे किसी को पिछे से नहीं टोका करते। जाने दो उसे , शायद वो फिर से तेरी वजह से लेट हो गया है। क्यों उससे लड़ती-झगडती हो सुबह-सुबह।”

ईधर देव आफिस में देर से पहुंता है, तो आफिस के मेनेजर पांडेजी उसे डांटने लगते हैं। और फिर हररोज की तरह सारा स्टाफ एकसाथ जमा होता है और जंग जैसी नई रामायण शुरू होती है।

देवधर आज तुम्हारे पास क्या नया बहाना है देर से आनेका या फिर कोई खिसीपीटी कहानी तो नहीं है। हर एक दो दिन में तुम ऐसा ही करते हो। अगर मैंने तुम्हें छुट दी तो बोलो फिर क्या होगा। और बड़े साहब हमें डांट लगाई दिया करते हैं।

” चलो चलो सभी लोग चाय लेलो, गर्म है। देवबाबू आप भी लेलो, ये तो रोज का है। और आप नहीं तो कोई और सही मगर मिलती तो किसी ना किसी को तो है। क्या करें जमाना ही खराब है। और रास्ते पर ट्रैफिक है। घर में बिवी की चिखचिख है, और फिर बच्चे हैं मानवों इन सब से छुटकारा मिल भी जाए। पर पांडेजी से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता है।।” कैलाश ऑफस का सेवक कहता है।”

    सभी हां में हां मिलायेंगे ऐसा उसे लगा। लेकिन सब बहुत चुपचाप बैठे थे। और चारो ओर सन्नाटा छा गया था। सभी एक दूसरे के तरफ भुत आगया है ऐसे देख रहे थे। कैलाश को कुछ समझ में नहीं आया।  तभी ऑफिस की रिसेप्शनिस्ट लिंडा स्मिथ, कैलाश को पिछे की तरफ इशारा करती है। और फिर कैलाश पिछे मुडकर देखता है। तो पिछे पांडे जी खड़े थे। और कैलाश बहुत डर गया और हड़बड़ाने लगा। उसे लगा उसकी नोकरी तो अब गई। वो डर से सहेम गया और अब उसे," आगे क्या बोलूं? ये समझ में नहीं आ रहा था।

To be continued…

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Sandip S._ShriKaviraj

By Sandip S._ShriKaviraj

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