कभी रोटी बेलते बेलते ,
कभी कपड़ों को कूटते-कूटते।
झाड़ू के संग चलते चलते,
यूं ही बन जाती है ।
हम स्त्रियों की कविता ।
मंजते बर्तनों के संग ,
मन में चलते हैं भाव
तह करते कपड़ों के संग
तह होती जाती हैं ।
सुखाते कपड़ों के संग
यूं ही बन जाती है ।
हम स्त्रियों की कविता ।
बच्चों को पढ़ाते -पढ़ाते ,
पति संग बतियाते -बतियाते
खाने में क्या बनाऊं की
चिंता करते-करते।
यूं ही बन जाती है ,
हम स्त्रियों की कविता ।
उबलते चाय के संग ,
उबलते विचार है ।
नजर टीवी पर,
हाथ में कलम भी तैयार है ।
ऐसे ही गृहस्थी के काम ,
निपटाते -निपटाते
यूं ही बन जाती है ।
हम स्त्रियों की कविता ।
गरिमा राकेश ‘गर्विता ‘गौतम
कोटा राजस्थान