महेश शर्मा बिजली जाने से उठ के बैठ गए, बाहर बारिश शुरू हो गयी थी, बारिश के साथ-साथ हल्की तेज हवा भी चल रही थी।
बेड के पास रखे स्टूल से पानी की बोतल उठा कर पानी पिया, मोबाइल उठा के समय देखा तो रात के २:३० बज रहे थे।
वो बेडरूम से निकल कर घर के बाहर पड़ी कुर्सी पर आकर बैठ गए, बुढ़ापा सच में जिंदगी की सबसे बड़ी तकलीफ़ है और उसके ऊपर बुढ़ापे में अकेलापन।
घर के बाहर हल्की-हल्की सी बरसात और बीच-बीच में बिजली की कड़कड़ाहट के साथ आँखों को चौधियाँ देने वाली चमक।
यादों के पलछिन उनकी आँखों के सामने चलचित्र के तरह चलने लगे।
गाँव की गलियों में गुजरा खिलखिलाता हुआ बचपन, दोस्तों के मस्ती, वो माँ का लाड़-प्यार, वो पिता की मीठी सी डाँट।
किसी रिश्तेदार के घर जाकर ना कोई दिनों का हिसाब और ना कोई नफा-नुकसान, ना कोई भविष्य की फ़िक्र ना कोई अतीत का रोना।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ने लगी धीरे-धीरे ईश्वरीय चीज़ें खुद से दूर जानी शुरू हो गयीं और मनुष्यों द्वारा निर्मित चीजों ने जिंदगी को सामाजिक और व्यवहारिक बनाने की बजाय व्यवसायिक बना दिया।
हम मनुष्य होने की जगह व्यवसायी बनते चले गये, हम जरूरत के घर की दहलीज से निकल कर ख्वाहिशों के महल में रहने लगे।
पढ़ाई के बाद नौकरी मिल गयी, जब तक शादी नहीं हुई तब तक माँ-बाप को ईश्वरीय स्वरूप मानते रहे फिर शादी हुई, जिंदगी का मौलिक स्वरूप बदलना शुरू हो गया।
इन परिवर्तनों के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं क्योंकि यदि हम नैतिकता का जो पाठ बेटों को पढ़ाते हैं उससे जरूरी ये है कि वो पाठ बेटियों को पढ़ाया जाये, जो कल बहु बनकर दूसरे घर जायेंगी।
माँ-बाप अपनी संतानों को अच्छी से अच्छी परिवरिश ये सोच कर देते हैं कि जीवन के उस बोझिल पड़ाव पर जहाँ शारीरिक क्षमता का ह्यस होना शुरू हो जाता है, जब अकेले में सबको खोने की अजीब सी घबराहट होनी शुरू हो जाती है, उस नाजुक से मोड़ पर उनकी संतानें उन्हें सहयोग और सहारा देंगी तो क्या संतानों का उनके बुढ़ापे में उनको असहाय छोड़ देना उचित है।
संतान चाहे लड़का हो या लड़की उसको सच्ची मानवता और निःस्वार्थ कर्म करने का ज्ञान जरूर दें।
कुछ समय पश्चात महेश शर्मा के माँ-बाप पंचतत्व में विलीन हो गए, साथ में छोड़ गए कुछ अधूरी सी इच्छाओं का मलाल और बीते हुए पलों की स्मृतिओं की अमूल्य धरोहर।
महेश शर्मा ने अधेड़ अवस्था तक सामान्य सा जीवन जिया लेकिन ज्यूँ-ज्यूँ उन्हें अपनी मानवीय गलतियों का एहसास होता गया वो स्वयं ही परिवर्तित होते चले गए।
उन्होंने अपनी इकलौती बेटी को मानवता और नैतिकता का मज़बूत आधार दिया आज उनकी बेटी राजस्व सेवा में उच्च पद पर आसीन है।
रिटायरमेंट के बाद महेश शर्मा ने खुद को समाज सेवा के लिए पूर्णतया समर्पित कर दिया, बागवानी और खाली समय में बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देना शुरू कर दिया।
पहले जब उनकी पत्नी और बेटी ननिहाल चली जाती थी तब वो अवसादग्रस्त से हो जाते थे, आज उनकी पत्नी को बेटी के पास गए लगभग एक महीना होने को आया लेकिन अब उन्हें अवसाद बोध नहीं क्योंकि अब उन्हें जीवन के उद्देश्य का ज्ञान हो चुका था।
अब उनके जीवन में खुशियां खुद से ज्यादा दूसरों के खुश होने से आतीं हैं।
आपके जाने के बाद आपके द्वारा किये उत्कृष्ट कार्य और आपकी मानवीय विचारधारा ही लोगों की स्मृतिओं में रहेगी ना आपके द्वारा अर्जित किये हुए भौतिक संसाधन और धन।
वो बच्चों की मोबाईल लत को ड्रग्स से भी ख़तरनाक मानते हैं, वो घर-घर जाकर माँ-बाप को मोबाईल और सोशल मीडिया जी जुड़े भयानक तथ्यों को बताते और साथ – साथ को भी समझाते।
जिन बच्चों को सामाजिकता का क… ख… ग भी नहीं पता वो भी ना जाने कितने सोशल अकाउंट चला रहे हैं।
और ना ही आपकी सोशल मीडिया पर पोस्ट की हुई पोस्ट्स आपको मानसिक शाँति देंगी।
जीवन जीवित होने मात्र में नहीं है, जीवन कर्तव्यनिष्ठ, सत्यनिष्ठ, धर्मनिष्ठ होने में है।
आइए बच्चों को जीवन दर्शन और जीवन की परिभाषा से साक्षात्कार करायें, उन्हें सोशल मीडिया के गहरे दलदल में धंसने से बचायें।
आइए सच में सोशल बनें।
ना कि सोशल मीडिया के लिए बनें।
बारिश और यादें धीरे-धीरे मिट्टी और अंतर्मन को गीला करती जा रहीं थीं ⛈️⛈️⛈️⛈️⛈️
रचनाकार – अवनेश कुमार गोस्वामी