दिनकर के अश्व चले अस्ताचल को,
खग-वृंद उड़ चले स्व स्व नीड़ को,
गूँज  उठा आस्मां मधुर श्रांत कलरव से,
सुरमई शाम उतरने को जो आ गई।
उम्मीदें जग गईं नीड़ों में सुषुप्त शिशुओं में,
मन मस्तिष्क बिछ गया तेरी प्रतीक्षा में,
बाट जोहता हर कोई मुखिया के आने की,
जो आगाज हुआ सुनहरी सुरमई शाम तेरा।
बढ़ा चला आ रहा अपनी ही धुन में,
दिन भर के कार्य को निभाते निभाते,
सुप्रभात के वादों को दिल से लगाए हुए,
जा पहुँचा दरवाज़े पर सब सौगात सजाए हुए।
सुरमई शाम की रौनक घर पर छा गई।
हँसी-ठिठोली किलकारियों से महक उठा घर आँगन,
कल के किरदारों के प्रारूप सज गए,
डूब गए नींद के आगोश में सुरमई शाम जो ढल गई।

रचनाकार- सुषमा श्रीवास्तव, मौलिक कृति,सर्वाधिकार सुरक्षित, रुद्रपुर, उत्तराखंड।

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