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ना खुदा की मस्जिद में, ना राम के मंदिर में।
ना ईसा के चर्च में, ना नानक के गुरुद्वारा में।।
मैं जियारत करूँगा सिर्फ, उसी मजार – चौतरे पर।
मैं रब से इनायत सिर्फ, उसी सभा – आस्ताने में ।।
जहाँ मिलती हो तालीम , हर मजहब के तरजीह की।
जहाँ सुनी जाती हो फरियाद, हर मजहब के इंसान की।।
जहाँ मांगी जाती हो दुहा, हर इंसान की खुशियों की।
जहाँ होती हो इबादत, अपने वतन के चैनो-अमन की।।
नजीरे रूहानियत ही अल्फ़ाज़ हो बयां,  जिस महफिल में।
आता हो नजर ख्वाब हर दिल के मुकम्मल का, जिस मंजिल में ।।
चढ़ाये जाते हो जहाँ फूल, देने को सलामी वीर – शहीदों को।
बांटी जाती हो जहाँ मुहब्बत, मुफ्त में हर घर मे।।
मैं वहाँ ही करूंगा शिरकत, सबसे हाथ मिलाने को।
सिर्फ वहाँ ही कहूंगा मैं बात, अपनी मन की सबको।।
सिर्फ वहीं झुकेगा मेरा सिर, सजदा किसी को करने को।
सिर्फ वहाँ ही बाटूंगा अपनी मुहब्बत,रहम मैं दिखाने को।।
चाहे मुझे कह लो काफिर, कर्म मेरा कुफ्र कह लो।
चाहे जाहिल हो मेरे लफ्ज़, बेअदब समझ लो मुझको मेरी अदा से।।
आये नहीं जहाँ बदबू मुझको, नफरत और नाइंसाफी की।
क्योंकि जी.आजाद रहा हूँ मैं तो ,सदा जाति- धर्म की जंजीरों से।।
रचनाकार एवं लेखक – 
गुरुदीन वर्मा उर्फ जी.आज़ाद 
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