अनपेक्षित संतान मानकर,
नाम रख दिया था चिन्धी।
किसी तरह से शिक्षा पाई,
चतुर्थ कक्षा तक सिंधु।
इच्छा क्या है एक बेटी की,
कौन पूछता है कब उससे।
किसी भी खूंटे से बाँध दिया,
बकरी, गाय भी भले इससे।
सुकुमारी अल्हड़ बाला को,
अधेड़ पुरूष से ब्याह दिया।
सगे जनक और जननी ने,
कैसा ये घोर अन्याय किया।
लड़ने चली गाँव के हित में,
सिंधुताई गाँव के मुखिया से।
मुखिया ने पति को भड़काया,
पति ने विमुख किया घर से।
आस लिए गई माँ के पास,
हर लेगी जननी दुख सारा।
पर हाय दैव की लीला देखो,
सगी जननी ने ही दुत्कारा।
थी गर्भवती उस समय ताई,
प्रसव काल अति निकट था।
आश्रय लिया एक तबेले में,
बेटी को दिया जहाँ जन्म था।
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी।
एक विवश माँ के जीवन की,
पत्थर मार मार कर अलग किया।
नाल को नाभि से बेटी की।
भीख माँगती थी वो दिनभर,
श्मशान में रात बिताती थी।
सोचा करती थी कितनी बातें।
कुछ यादें उसे सताती थीं।
बेटी को ट्रस्ट को सौंप दिया।
बनी हज़ारों अनाथों की माँ
जो खुद ही एक बेसहारा थी,
बनी सहारा देने वाली माँ।
ऐसा एक परिवार बनाया
कर्मठ देवी सिंधु ताई ने,
जाति ,धर्म के भेद से परे
रिश्ते महकाये इस माई ने।
गलती का अहसास हुआ
जीवन की संध्या बेला में।
पति घिर गया अकेलेपन,
के जब निर्मम चंगुल में।
आया पछताते ताई के पास,
सरलहृदया ने माफ किया।
माँ बन चुकी अब वह सबकी।
पति को बड़ा बेटा मान लिया।
जीवन ये कठिन परीक्षा है।
दुख हैं उसके कठिन प्रश्नपत्र।
कुशलतापूर्वक हल कर प्रश्न,
ताई ने दिए सभी ठीक उत्तर।
उनके आज चले जाने पर,
कीर्ति को उनकी याद करते।
चमकेंगी ताई विश्व पटल पर।
नभ पर ज्यूँ सूर्य चाँद चमकते।
स्नेहलता पाण्डेय ‘स्नेह’