सिन्दूर पर कविता 

सिन्दूर के नाम पर

क्यों?

नारी बंध सी जाती है,

अबला बन जाती है

तड़प तड़प कर

जिंदा ही,

मर सी जाती है। 

सिन्दूर के लज्जा में

सम्मान श्रद्धा में

पति को भगवान ही

समझती,

फिर भी,

न जाने क्यों!

बार बार मन में 

प्रश्न उठता है;

वह सिंदूर है

कि लोहे की लाल बेड़िया,

जो पांव में नहीं

सिर पर डाल कर

मरने के लिए

मजबूर कर

छोड़ दी जाती है। 

क्या इसी लिए

सिन्दूर का रंग लाल

ख़ून सा ,

मांग में भर लिया जाता है। 

या फिर!

प्रेम का प्रतीक

गुलाब सा

रिस्तों का दस्तूर लिए

माथे से सिर तक

सजा दिया जाता है। 

किन्तु!

सिन्दूर तो सिंदूर है

दो दिलों के

मिलन का प्रतीक है 

सुहाग का लकीर है

सुहागन का तकदीर है। 

रचनाकार -रामबृक्ष बहादुरपुरी अम्बेडकरनगर यू पी 

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