” संतोष जल्दी करो बेटा, गणपति स्थापना का मुहूर्त निकल जाएगा ….” संतोष से रिद्धि जी ने कहा ।

” आई मां, सब रेडी है … आप बस अब शुरू करवाइए । ” संतोष को देखकर सिद्धि जी (जोकि बहन हैं रिद्धि जी की) ने कहा ,
” अरी रिद्धि तेरी बहू तो बहुत ही तेज़ी से काम निपटा लेती है और तो और सजने संवरने में भी इसका कोई जवाब नहीं … ( संतोष ने मासी सास के पांव छुए) अरे… अरे बहू सदा खुश रहो… देखो तो संस्कारों की भी खान है।”

रिद्धि जी मुस्कुरा कर गणपति स्थापना में लग गई, पूजा संपन्न होने के बाद रिद्धि जी ने सिद्धि जी के लिए प्रसाद पेक करवा दिया और कहा ,
” बहन प्रसाद तो दे रही हूं पर बहू बेटा यहां आते तो अच्छा लगता ।”

” अरी पूछो ही मत, मेरी बहू तेरी बहू जैसी होशियार कहां, वो तो साल में जितने महीने है उससे ज्यादा तो बिमार रहती है, बेटे का फिर मन ही नहीं करता कहीं जाने को।”

” फिर घर का काम कैसे चलता है ?”

” मैं तो कुछ नहीं करती, मुझे पता है यह सब उसके नाटक है। मैं भी घुटने पकड़ कर बैठ जाती हूं, फिर करती है खुद ही उठकर … हूं ह…”

” अरे रे …”

” आज कल की बहूओ में बड़े नखरे हैं, तुझे क्या मालूम तुझे तो सयानी बहू मिली है जो …”

” ताली तो हमेशा दो हाथ से ही बजती है बहना ।”

” हां तुझे कुछ सहन नहीं करना पड़ता इसलिए बड़ी बड़ी बातें करना आसान है… जिस… पर… बीते वो ही जाने , अच्छा चलती हूं।”

सिद्धि जी की बहू सुनिता और संतोष का विवाह एक ही मंडप में हुआ था, संतोष का मन किया सुनिता की तबीयत देख आने का, रिद्धि जी से अनुमति लेकर संतोष दूसरे ही दिन सुनिता की तबीयत देखने चली जाती है।

” अरी बहू (माथा चूम लिया) आज हमारे घर तू आई है, बहुत खुशी हुई । तुझे काम से फुर्सत ही नहीं मिलती होगी ना …”

नहीं मासी मां ऐसी बात नहीं काम तो समय से हो जाता है फिर मैं और मां बैठकर बातें करते हैं … फिर मां को मंदिर छोड़ आती हूं… तब तक शाम का काम निपटा लेती हूं फिर मां को मंदिर से ले आती हूं सभी मिलकर खाना खाते हैं और बस फिर साथ बैठकर टीवी देखते हैं और गप्पे लड़ाते हैं। कुछ ज्यादा दौड़ धूप नहीं करती । बस निकलना नहीं हो पाता, ये तो सुनिता की तबीयत का सुना तो सोचा मिल लूं।”

” वाह वाह अच्छा किया आ बैठ, अरी सुनिता देख । रिद्धि की बहू आई है चाय बना दे।”

सुनिता कमरे से आती है, बाल बिखरे हुए थे, अब भी उसकी तबीयत ठीक नहीं लग रही थी, पल्लू ठीक कर वह रसोई की तरफ बढ़ती है।

” अरी तू कहां चल दी बहू बैठ सारा दिन काम करती होगी ना, बैठ आराम से, वो बना लेगी, वो जब चाहे सोती है जब चाहे काम करती है, उसे यहां रोक टोक करने वाला तो कोई है नहीं ..”

” आई मासी मां …”

कहकर संतोष रसोई में चली जाती है। जाकर के सब से पहले वह सुनिता का बदन छूती है, उसका बदन ठंडा था लेकिन उसमें कमजोरी दिख रही थी ।

” तुमने जांच करवाई…”

” हां सभी रीपोर्ट नार्मल है… बस थोड़ा खून कम है, पहले से ही कमजोर लड़की मत्थे मढ दी इसके मां बाप ने “.. सिद्धि जी ने बैठे बैठे ही ताना मारा ।

” तुम इतना सब सुन कैसे लेती हो …” संतोष ने आश्चर्य से पूछा ।

” यह सोच कर कि शायद कभी ये बोल बोल कर थक जाएंगे और मुझे समझना शुरू करेंगे। मैं तुम्हारे बारे में और मासी मां के बारे में सब जानती हूं। मैं कितनी बार तुम्हारे यहां आई मैंने तुम्हारा एक-दूसरे के लिए प्यार देखा । और अब मेरे हाथ पांव कांपते हैं , तुम्हारे यहां आने से क्योंकि मुझे ऐसा प्यार पाने की तड़प होती है। मुझे भी मां चाहिए … क्या शादी के बाद बहू को मां पाने का हक़ नहीं होता ” कहते कहते सुनिता की आंखें भीग गईं।

सुनिता को पहली बार इस तरह बात करते हुए देख सासू मां ने झिझकते हुए उसे गले से लगा लिया ।

” मासी मां सुनिता को आपके प्यार की दवाई की जरूरत है, काम तो हर कोई अपने घर पर मिल जुल कर ही करता है, एक के करने से थोड़े ही पूरा होता है, और उसपर भी प्यार की बौछार न हो तो पौधे भी मुरझा जाते हैं फिर ये तो इंसान है। गणपति बाप्पा आपके परिवार को खुश रखे पर अबकी बार पहल करने की बारी आपकी है 1″

सिद्धि जी को अपनी गलती समझ आ गई और वें मिल कर खुशी खुशी रहने लगें ।

आपकी अपनी
( Deep )

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