मेरे सामने वाली खिड़की में,1शोख हसीना रहती है।
कुछ कहती तो नहीं मुझसे,रह-रह के देखा करती है।
ऐसे क्यों लगता है मुझको,वो मुझे देख कुछ कहती है।
दिल कहता है मेरा मुझसे,प्यार ये शायद वो करती है।
उसके रोज-2 के हरकत से,दिल उसपे आ गया मेरा।
यूँतो मेरे पास है मेरा दिल,कोई वश नहीं उसपे मेरा।
जब मैं निज खिड़की खोलूँ,उसे पाता खड़ी डाले डेरा।
मेरा दिल ये मेरे वश में नहीं,दिल चुरा ले गई वह मेरा।
अब चैन इधर भी नहीं रहा,उधर भी तो शायद बेचैनी।
वो केवल मुझे देखती रहती,बढ़ जाती मेरी तो बेचैनी।
ऐसे में नींद कहाँ आती यारों,उलझन ये रहती बेचैनी।
ख्वाबों में भी उसके खातिर, तड़प रहती और बेचैनी।
भोली सूरत है सलोनी मूरत,चेहरे पे चाहत की आह।
गोरे गाल और नयन कजरारे,होठ गुलाबी गोरी बाँह।
काली जुल्फें व नजरें प्यासी,यौवन का न कोई थाह।
अलबेला है रूप गजब का,बढ़ गई देख मेरी ये चाह।
ख्वाबों में मलिका वो मेरी,मेरा सपना सच हो जाता।
जन्म-जन्म की वो मेरी हो जाती,मैं उसका हो जाता।
मेरी खिड़की के सामने वाली,शोख हसीना से नाता।
मेरे जीवन में कुछ ऐसा ही,उस खिड़की से हो जाता।
रचयिता :
डॉ. विनय कुमार श्रीवास्तव
वरिष्ठ प्रवक्ता-पीबी कालेज,प्रतापगढ़ सिटी,उ.प्र.
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