मेरे सामने वाली खिड़की पे ना कोई चांद का टुकड़ा है,
ना कोई हसीन दिलरुबा है,
गुजरते वक्त के साथ मैने एक बूढ़ी अम्मा को हमेशा वहां देखा है,
पता नहीं किस ज़माने से वो अपने अंदर कई राज़ छुपाए बैठी है,
हमेशा उसकी आंखों के कोने पे एक बूंद आंसू को ठहरता हुआ देखा है,
छड़ी के सहारे चलती है,
हर वक्त सामनेवाली खिड़की पे बैठी रहती है,
पता नहीं हर दिन किसको याद करती है,
कभी कभी यादों की गोद में सो भी जाती है,
आज हिम्मत से उसका हाथ थामा है,
उसकी आंखों से टपकते आंसुओं को अपने हाथों से पोछा है,
खुद के लिए उसके दिल में जगह बना कर,
उसकी जिंदगी की किताब को खोला है,
जब ज़िंदगी ने साथ छोड़ दिया था,
उस मुश्किल वक्त पे रास्ते से एक अनाथ को उठा लाई थी,
अपनी दानों से बचा कर,उसका पेट भरती थी,
दूसरों के घर काम करके उसको पढ़ाती थी,
हर वक्त सीने से लगा कर रखती थी,
मानो वो इसकी आंखों का तारा था,
पता नहीं वक्त कैसे बदल गया,
जिसे आंखों का तारा समझती थी, वो गैर कैसे बन गया,
जिसको उंगली पकड़ कर, चलना सिखाया था,
वो बेरहमी से हाथ कैसे छोड़ गया,
किसी और का हाथ पकड़ कर वो तो चला गया,
पीछे अपनी मां को दर्द में जूझने को छोड़ गया,
बिचारी मां रोती रही, चिलाती रही,
उसको सुनने को कोई ना रहा,
तब से लेकर आज तक,
एक कुर्सी और एक छड़ी के सहारे वो जीती रही,
टूटा हुये फोन से अपने बेटे को पुकारती रही,
थक हार कर फिर अपने आंसू पोंछती रही,
पत्थर भी पिघल जायेगा उसकी बातें सुन कर,
खैर मै तो एक इंसान हूं,
झूठे दिलासों का एक घर बना कर उसकी दिल में,
मै भी लौट आई हूं,
फिर से सामने वाली खिड़की पे उस अम्मा को देखना जारी है,
किस्मत से उसकी आंखों से आंसू के बूंद गायब है,
मन ही मन वो आज बहुत खुश है,
दिल पे बैठा बोझ जो उतर गया है,
मेरे सामने वाली खिड़की पे ना कोई चांद का टुकड़ा है,
ना कोई हसीन दिलरुबा है,
वहां एक बूढ़ी अम्मा को देखा है,
जो सालों बाद आज ज़िंदगी पाई है….
© ज्योतिजयीता महापात्र
खोरधा, ओडिशा