अथाह वारि का
स्वामित्व पाकर भी,
हे वारिधि तू तनिक
नही अकड़ता हैं।
दूर से आती सरिताओं को
सहर्ष शरण में लेता हैं।
सुदामा सी चलकर आती हैं
वो तेरे पास
कृष्ण बन तू भी इनको
गले लगाता हैं।
भेद मिटाकर छोटे-बड़े का,
तू इन्हें भी सागर बना देता हैं।
तभी तो छोड़ अपने पिता का घर
ये तेरा सहारा ढूँढती हैं।
मिलाकर तू इन्हें अपने में
अपना सा बना देता हैं।
गरिमा राकेश गौत्तम
कोटा राजस्थान