सांझे चूल्हे की बात जब होती ,बचपन याद है आता ,
संयुक्त परिवार में दादा दादी बुआ चाचा का प्यार बड़ा तड़पाता !!
न होता था तेरा मेरा, सबका सब कुछ होता,
कजिन चचेरे का मतलब तो ,शहर में ही समझा था !!
सुबह सबेरे चूल्हा जलता मां चाची मिल कर पकाती
चाचा भैया सब्जी लाते ,बुआ हमको पढ़ाती !
चूल्हा दो बर्नर का था ,खीर बनती कभी सिवइयां
मां बनाती थी सब्जी दाल, चाची सेकती थी रोटियां !!
पुरुष बच्चो की सजती थाली पहले
परसती थीं घर की बेटियां
बाद में औरते खाती संग में, लेकर अचार व खटाइयां!!
गिनकर घर में बनती नही, थी कभी भी रोटियां
अक्सर जो आता खाकर ही जाता खप जाती थी रोटियां!!
त्योहारों पर जैसे मानो, मेला सा था लगता
पकवानों की खुशबू से मन, गदगद था हो जाता !
साझे का दुख था होता, सुख भी साझे का होता
साझे खुशियों की बात निराली, उस जैसा कुछ न होता !!
मोहल्ले गलियारे के सारे ,ताऊ चाचा भैया होते
अपनो से बिल्कुल हमको ,कम नहीं समझते!
मामा मामी नाना नानी मौसी ,हमसभी संग में रहते
साझे चूल्हे का आनंद वहां भी ,खूब हम थे लेते !!
अद्भुत प्यार असीम ममता की, छांव हमे थी मिलती
अब वो नजारा इस युग में, विरले ही है मिलती!!
शादी व्याह में पंद्रह दिन, पहलेसे सब आ जाते
सब रिश्तेदारों के घर में तबसे,थे चूल्हे बंद हो जाते !!
मिलकर बनती थी पूरियां, कोई सेकता कोई बेलता
महिनो पहले से संगीत चलता, था नही एक दिन होता!
पीहर लड़की आए तो, मोहल्ले में रौनक आती
हर घर में बराबर की ,खुशियां थी छा जाती!!
आज भी कही कहीं ,सांझा चूल्हा है जलता
पर अब वो बात नही उसमे, जो बात था पहले होता
साझा चूल्हा है पर, दिल साझा ना होता
इस स्वार्थी युग में कोई, किसी का सगा न होता !!
पूनम श्रीवास्तव
नवी मुम्बई
महाराष्ट्र