सांझ ढले ही हो जाती है चहल पहल
आज भी उस घर में आती है सहर
खुशबू मीठी नोक झोंक की आवाज़
बच्चो के लिए हो जाती हैं आज भी मोज
हो गए लाख हम दो हमारे दो से परिवार
मेरे घर में अभी भी कायम है वो प्यार
सांझा चूल्हा जब मेरी मां जलती है
प्रेम ही तो है उनका वो मनुहार कर
एक एक को छक कर खिलाती है
चाचा चाची कभी नाक मुंह बनाते भी है
एक मेरी दादी ही है जो डांट कर लाइन पर ले ही सबको आती है
मेरे पापा ने कभी मम्मी संग
कमरे में खाना नहीं खाया
सबके बीच आंगन में गप्पे लड़ाते हुए
स्नेह का परम सुख ही पाया ,
मेरे घर में आज भी सांझा चूल्हा ही
जलता आया……
©रेणु सिंह राधे ✍️