जब्त कर जाती थी
वह औरत !
टूटी हुई भावनाओं से
निकली आह को ,
आंखों से बहते आंसुओं को ,
न रुकने वाली सिसकियों को,
और लग जाती थी
फिर से सब की सेवा में ,
एक दिन उठाकर पेंसिल
उकेर देती है अपनी
टूटी हुई भावनाओं को
कागज पर ,
भर देती है उसमें
अधूरे ख्वाब के रंग,
लगा देती है प्राइस टैग,
डाल देती है अपने
सोशल मीडिया अकाउंट पर,
कुछ ही घंटों में
हजारों लाइक कमेंट आते हैं,
और कुछ खरीदार भी ,
बेच देती है वह अपने
अंदर के आक्रोश को
मुंह मांगे दाम में
और एक दिन बन जाती है
बेचकर अपनी पीड़ा
आत्मनिर्भर और सशक्त औरत ।
स्वरचित :
पिंकी मिश्रा भागलपुर बिहार ।