था वह मेरे सपनों का घर,
मेरे चहेते अपनों का घर।
वहाँ नहीं लगता था डर,
होती सबसे चटर पटर।
कितने सपने थे पलते,
उन्मुक्त गगन सी बातें थीं।
उछल कूद के दिन थे प्यारे,
सपनीली मधुरिम रातें थीं।
कूलर ए. सी नही वहाँ पर,
नींद गहरी बहुत आती थी।
डनलप के गद्दे की सेज नहीं,
पतली दरी बहुत सुहाती थी।
जाने कितने सारे सपने,
ये छोटी आँखे देखा करतीं,
कभी खेलती कभी कूदती।
कभी परीलोक विचरा करतीं।
कभी देखतीं ये आँखे
डॉक्टर बनने का सपना।
कभी भूत से डरकर,
सोते से उठकर जगना।
बाबूजी जाते ऑफिस जब,
एक चवन्नी वो दे कर जाते।
लॉलीपॉप,लेमन जूस लेकर
बड़े चाव से थे हमसब खाते।
नहीं किसी से डर वहाँ पर,
दादीगिरी थी चलती अपनी।
कोईं न मन का काम हुआ तो,
आँखों से लगती गंगा बहनी।
आता है याद बहुत अब भी,
वह मेरा सपनों का घर।
सुंदर से रिश्ते थे जहाँ पर,
माँ-बाबा जैसे फरिश्तों का घर।
स्नेहलता पाण्डेय ‘स्नेह’