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चले पड़े हैं काम की राह में,
इस चिलचिलाती धूप गर्मी में,
जहां किसी को मिलती छांव नहीं,
तब याद आती हैं घरौंदा अपना ,
जहां मिलती हैं ठंडक प्यार घरों का,
पशु पक्षी भटक रहे हैं ,
किसी का न है खेत खलिहान ,
न किसी की पेड़ पौधे,
बस लौट आना है इस तपती दुपहरी में,
अपने बने बनाए घास फूस, मिट्टी की घरौंदे में,
जहां मिलती है सुकून अपने सोने की महल का ।
चले भी जाए कोई इंसान छोड़कर ,
बाहर किसी आशियाने बनाकर ,
अपनी सपनो का घर भुलाकर ,
अपने भटकती मंजिल तक पहुंच जाना है,
फिर भी याद सताती है वही अपनो की घरौंदे ,
जहां मां बाप भाई बहन हो घरौंदे में ।
जुग्गी झोपड़ी हो या कोई मिट्ठी की ,
सबका अपना प्यारा सा घर होता है ,
जिसमे बसती हैं हमारी बचपन की यादें ,
अपने भाई बहनों , मां बाप की डोरियां ,
ऐसी होती हैं घरौंदा हमारा ।
छोड़ना पड़ता है हर किसी को एकदिन ,
वो प्यारा सा घरौंदा अपना ,
किसी की पुकारती गरीबी अपनी ,
तो किसी को बताती हैं बेटी होने का फर्ज ,
जो छोड़ जाते हैं घरौंदा एक दिन ,
सच… एक दिन आंसू भरी याद दिलाते हैं ।
लड़के हो या लड़कियां
यहां सबकी अपनी मजबूरियां हैं ,
बंधे होते हैं सब अपने घरौंदे की कर्मो से,
मां बाप के सजाए हुए घर को ,
कोई अपनी स्थितियों से प्रदेश चले जाते ,
तो कोई रीति रिवाजों से विदाई हो जाती ।
बनाकर घुरौंदे को रहते हैं हर रह वर कोई,
घास फूस से बनी सोने की घर को ,
पक्षी भी अपना आशियाना बनाती,
तो फुदकती, चहकती अपने घरौंदे में जब ,
चाहूं ओर की खुशियां है भर जाती ।
बनाकर घरौंदा अपना खुशियों की थाल सजाने ,
होती हैं जहां पति पत्नी और बच्चे वो अपने,
सपनो के पंख उड़ने लगते हैं ,
करके नादानियां सैतानियां हम हम मिलकर ,
अपने घरौंदे में ऊंच नीच, छोटे बड़े में …
स्नेह का तानेखा लगा जाते हैं ।
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मनीष कुमार
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