सपने तो सपने होते हैं ।
हर पल बनते – बिगड़ते रहते हैं ।
सोते सपनों की तो बात ही क्या ,
जागती आँखों के भी कब अपने होते हैं ? 
दुनियादारी से अनजान थी मैं ,
हकीकत से बेपरवाह सी मैं ,
घर के सपने बुनती थी मैं ।
सपनों के घर में सजती थी मैं ।
खुले नील गगन के नीचे ,
एक चट्टानी पहाड़ी के पीछे , 
छोटा सा एक घर बनाऊँ , 
प्रेम – शान्ति से उसे सजाऊँ । 
घर बेला – चमेली से महके ,
प्रीत बदरिया मेरे आँगन में बरसे ।
घने पेड़ों पर गौरैया फ़ाख्ता चहके ।
मन ऐसे सपनों के घर को तरसे ।
सब मिल – जुल घर में रहें ।
माता – पिता का सम्मान करें ।
मन एक दूजे से मिले रहें ।
घर प्रेम – शान्ति से सजा रहे । 
जब उम्र का आँगन जरा बदला ।
महानगर में प्रस्थान किया । 
सपनों का घर सपने मे बदला ।
घर का सपना पिंजरे में बदला । 
न सपनों का घर ही है अब ,
सपने तो आकार बदलते हैं ।
जरा सी आहट पर बनते बिगड़ते हैं ।
सपने तो सपने होते हैं । 
मीरा सक्सेना माध्वी 
नई दिल्ली
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