अगर तुमने रोके नहीं होते मेरे कदम,
उसकी तरफ बढ़ते मेरे हाथ को,
बताया नहीं होता मुझको मनुष्य,
जिसको मैं भूल चुका था तब,
सच में मिट जाते उसके अरमान,
जिसका ना कोई कसूर था।
वह एक तुम ही तो हो,
जिसने कराई थी मुझको महसूस,
उसकी पीड़ा और उसकी कहानी,
और ऑंसुओं की अश्रु धारा,
जो हर आदमी को पिघला देती है,
पत्थर दिल को भी हिम की तरहां।
मैं तो पागल ही हो गया था,
मुस्कराते उस फूल को देखकर,
और पार करने ही जा रहा था,
अपनी इंसानियत की सीमाएं,
शुक्रगुजार हूँ तुम्हारा मैं,
कि तुमने मुझको रोक लिया।
बचा लिया उस जिंदगी को,
मेरी हैवानियत की आदत से,
याद दिला दी मुझको मोहब्बत,
मेरी इंसानियत और मेरा जमीर,
मेरी मंजिल और मेरी खुशी,
जिसको पाने के लिए करता रहा हूँ ,
मन्दिर – मस्जिद -गुरुद्वारा में मिन्नत,
सच मैं तुमको बहुत चाहता हूँ।
शिक्षक एवं साहित्यकार-
गुरुदीन वर्मा उर्फ जी.आज़ाद
तहसील एवं जिला- बारां(राजस्थान)