सच को स्वीकार करो,यदि ऐसा कुछ होता है।
जीवन की रेखा में लिखा जो वही तो होता है।
अपराध बोध में जीना जीवन अच्छा ना होता।
गलती अपनी माने पश्चाताप करे अच्छा होता।
अपराध क्रोध का जनक बुरी संगत से है होता।
समय रहे ही संभल जाय तो आगे नहीं है होता।
कभी ना सोचें ऐसा करना चीज बुरी यह होती।
अपने कृत्यों की स्वीकृति करलेना अच्छा होती।
आसानी से कोई भी अपने अपराध न स्वीकारे।
पाता सजा और भोगे तो ही वो इस पर विचारे।
पाप कोई अपराध कोई ज्यादा दिन न छुपता।
कब तक भागोगे समाज से और रहोगे छुपता।
मानोगे स्वीकार करोगे तो बदलेगी ये भावना।
जरा जरा सी बात पर ना आये क्रोध ताव ना।
करले जो स्वीकार उसे कुछ दण्ड भी कम मिले।
साबित हो जाने पर अपराध का पूरा दण्ड मिले।
रचियता :
डॉ.विनय कुमार श्रीवास्तव
वरिष्ठ प्रवक्ता-पीबी कालेज,प्रतापगढ़ सिटी,उ.प्र.
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