तुम आज जो हंस रहे हो,
जिसकी खामोशी को देखकर,
उसके मुर्दनी स्वर पर,
जो निकलता है उसके कण्ठ से,
या फिर उसकी तूलिका से।
अपने तरकश के तीरों से तुम,
हाथों में लेकर गर्म छड़ें तुम,
कर रहे हो उसके टुकड़े आज,
शून्य का भाव उसमें पैदा कर,
किया है जिसको तुमने,
निर्मूल और पतझड़ सा एक दरख़्त।
तुम विश्वास करो या मत करो,
यही वृक्ष इस जमीन पर,
इसी आतप में बनेगा वटवृक्ष,
एक ऐसी पहेली जो कभी,
नहीं सुनी होगी तुमने जीवन में,
और नहीं पढ़ी होगी कभी,
किसी किताब में तुमने 
ऐसी एक अमर कृति,
श्रृंगारित संस्कारों से इस धरा पर,
जिससे आबाद होगा उसका नाम,
उसकी मातृभूमि करेगी गर्व, 
उसके संघर्ष और संस्कारों पर,
और होगा उसका नाम अमर,
सच , एक दिन।
शिक्षक एवं साहित्यकार- 
गुरुदीन वर्मा उर्फ जी.आज़ाद
तहसील एवं जिला- बारां(राजस्थान)
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