हर कोई प्रसन्नचित्त रहना चाहता है, उसके लिए संतोष से सुन्दर आश्रय दूसरा नहीं। जिसके लिए हमें अपने सोच, दृष्टिकोण व चिंतनशैली में परिवर्तन करना पड़ता है।
हममें से अधिकांश व्यक्ति उद्विग्न, निराश, चिंतित, विक्षुब्ध, भयभीत, कायर, असंतुष्ट पाए जाते हैं। मानसिक दृष्टि से शांत, संतुष्ट, संतुलित और प्रसन्न कोई विरले ही दिखाई पड़ेंगे।इसके लिए दूसरों के व्यवहार और परिस्थितियों को भी सर्वथा निर्दोष नहीं कहा जा सकता, पर यह स्वीकार करना ही होगा कि इसका बहुत बड़ा कारण अपने चिंतन-तंत्र की दुर्बलता ही रहती है। हम अपनी ही इच्छा पूर्ति चाहते हैं और हर परिस्थिति को अपनी मर्जी के अनुरूप बदलने की अपेक्षा करते हैं। यह मूल गति है कि यह संसार केवल हमारे लिए ही नहीं बना है, इसमें व्यक्तियों का विकास अपने क्रम से हो रहा है और परिस्थितियाँ अपने प्रवाह से बह रही है। हमें उनके साथ तालमेल बिठाने की कुशलता प्राप्त करनी चाहिए।
परिस्थितिजन्य असंतोष भी अधिकांश में तो अपने चिंतन दोष के कारण उत्पन्न होते हैं। यदि अमीरों के साथ अपनी तुलना की जाए तो स्थिति गरीबों जैसी प्रतीत होगी और दुःख बना रहेगा। यदि उसकी तुलना मापदंड को गरीबों के साथ किया जाए तो प्रतीत होगा कि अपनी वर्तमान स्थिति लाखों-करोड़ों से अच्छी है ।गरीबी अमीरी सापेक्ष है। बड़े अमीरों की तुलना में हर कोई गरीब ठहरेगा और हर गरीब अपने को अधिक अभावग्रस्त दिखाई पड़ेंगे। उनसे तुलना करने पर वह अपने को सुसम्पन्न अनुभव कर सकता है। दृष्टिकोण सही होने से व्यक्ति अपने विकास के लिए प्रयास करते हुए भी असंतोष और घुटन से बच सकता है। अतः प्रयास करें, अवश्य लाभान्वित होंगे।
धन्यवाद!
राम राम जय श्रीराम!
सुषमा श्रीवास्तव, मौलिक विचार, रुद्रपुर, उत्तराखंड।