“भागीरथी गंगा”
“राजा सगर” साठ हजार पुत्रों की मृत्यु और यज्ञ अपूर्ण रह जाने के कारण शोक में डूब गए। इस दुःख की अवस्था में कुछ समय उपरांत ही उनकी मृत्यु हो गई।
इधर सगर पुत्रों की अकाल मृत्यु के कारण उनकी आत्मा को शांति नहीं मिली।
उनके भस्म हुए शरीर की राख, जलता हुआ अंगार बन कर, पूरी पृथ्वी को जलाने लगी।
ऋषि मुनियों ने कहा! इनकी राख को जल में प्रवाहित करना होगा। चूंकि एक व्यक्ति नहीं, साठ हजार देह की राख वो भी अंगार बन चुकी थी। इसलिए ऋषि-मुनियों ने तय किया, जल को ही यहां लाकर राख को डुबोया जाए।राजा सगर की दूसरी पत्नी के पुत्र असमंजस को यह कार्य सौंपा गया।
असमंजस जब जल लेकर उस स्थान पर गए तो, जल पृथ्वी पर गिरते ही जलते तवे पर गिरने के समान प्रतीत होता। संसार के हर क्षेत्र, हर सरोवर, हर नदी और तालाब से जल लाकर वहां उनकी राख को डुबोने की कोशिश की गई। परन्तु सब असफल रहा। जल के पड़ने पर, वहां और ज्यादा अग्नि का प्रभाव बढ़ जाता।
फिर ऋषि मुनियों ने बताया, अगर गंगा बैकुंठ धाम से, पृथ्वी पर आयेंगी और पूरी राख को अपने पवित्र जल से पवित्र करेंगी, तभी इन आत्माओं को शांति प्रदान हो सकती है। तभी पृथ्वी इनके ताप से मुक्त होगी। मां गंगा को पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से असमंजस तपस्या करने लगे।
तपस्या करते-करते ही कुछ समय उपरांत उनकी मृत्यु हो गई।
फिर अपने पित्रों को सदगति पहुंचाने गंगा को पृथ्वी पर लाने हेतु, असमंजस के पुत्र दिलीप, भी तपस्या करने लगे। एक लाख वर्ष तपस्या करने के उपरांत उनकी भी मृत्यु हो गई।
उनके पुत्र अंशुमान भी तपस्या करते करते मृत्यु को प्राप्त हुए।
अंशुमान की मृत्यु की खबर सुनकर अंशुमान की पत्नी अन्न जल और हर भौतिक सुख का त्याग कर, महादेव का स्मरण करते हुए, देह त्यागने के उद्देश्य से धरती पर लेट गईं।उस समय भागीरथ उनके गर्भ में थे।
महीनों तक कुछ भी ना खाने पीने के कारण, वो धरती से उठ भी नहीं पा रही थी।देवताओं ने विचार किया। इस तरह तो राजा सगर के वंश का नाश जाएगा और “सगर” वंशजों को मुक्ति भी प्राप्त नहीं होगी। नवें माह में भगवान विष्णु अपनी माया से अंशुमन पत्नी के समक्ष, फल का वृक्ष उत्पन्न कर देते हैं। उनके इतने समीप की हाथ बढ़ाकर वह फल को तोड़ सकें।
उस वृक्ष के फल को देखते ही उनके मन में फल खाने की इच्छा जागृत हो जाती है। परन्तु जैसे ही वह फल तोड़ने की कोशिश करती हैं, डाली ऊपर हो जाती है। फल खाने की इच्छा इतनी तीव्र हो जाती है कि वह उठ कर बैठ जाती हैं। जैसे ही फल तोड़ने की कोशिश करती है डाली थोड़ा और ऊपर हो जाती है। अंशुमन की पत्नि खड़ी हो जाती हैं। डाली थोड़ी और ऊपर हो जाती है। वह फल तोड़ने के लिए इधर-उधर कोई वस्तु ढूंढने की कोशिश करती है। तभी उनको एक डंडा दिखाई देता है। बहुत मुश्किल से वह फल तोड़ पाती हैं। उस फल को तोड़ कर खा लेती है।
फल खाने के तुरंत बाद, उनके शरीर में इतनी शक्ति हो जाती है कि, वह आराम से चल फिर सकें। उनके मन में यह भावना जागृत हो जाती है कि उन्हें अपने पति के कुल के मोक्ष के लिए अपने पुत्र को जन्म देना ही है। यह भावना मन में आते ही वह खुद को पूर्ण रूप से स्वस्थ पाती है। फल के प्रभाव से उनके मन में सकारात्मक ऊर्जाओं का संचार हो जाता है। फिर भागीरथ जन्म लेते हैं।
चूंकि जब वह गर्भ में थे, तब उनकी माता ने अन्न जल का त्याग कर दिया था इस कारण वह बचपन से ही कमजोर थे। चूंकि भगवान विष्णु का उन पर विशेष कृपा थी। माता भी महादेव की अनन्य भक्त थी। उनका मन पवित्र और भगवान विष्णु के प्रति श्रद्धा और पूर्ण विश्वास से भरा हुआ था।
अंशुमान के पुत्र भागीरथ जो अभी बालक ही थे।
वो भी भगवान विष्णु की तपस्या करने लगे।
क्रमशः
अम्बिका झा ✍️
Very interesting story