27/4/23

दुखी है गंगा व्यथित हो
करुण स्वर में रही
पुकार पाप नाशिनी
ये मोक्षदायिनी गंगा

कब तक आखिर कब तक
है मनुष्य तुम्हारे
पापो को मै धोऊँ
आई थी जब जमीन पर
निर्मल पवित्र थी

धोते धोते पाप को
थक गई हूं अब मै भी
कब तक तुम्हारे किए
पापों का बोझा मैं उठाऊं

अपनी गन्दगी से
गन्दा मुझे भी कर दिया
शुद्ध था जो जल मेरा
दूषित उसे भी कर दिया

बहाकर शवो को
शववाहिनी मुझे बना दिया
एक तरफ तो मां गंगा
कह पूजते हो मुझे

वहीं दूसरी ओर
दूषित करते हो
मां के ही आँचल को ही
कैसी विडंबना है यह
केसा लाड दुलार तुम्हारा।

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2 thought on “गंगा की पुकार”

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