शहीद का बेटा इसी नाम से पुकारते हैं ,उसे आज भी गांव वाले एक साल से भी कम उम्र थी ,उसकी जब आजादी की लड़ाई में ,जब उसके पिता दुश्मन पर सीधे वार कर रहे थे, एक छिपे अंग्रेज की गोली के शिकार हो गए।
बचपन में दादा और मां-बापू की बहादुरी के किस्से सुनाते थे ।दादा और दादी को गर्व होता कि मेरे बेटे ने देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए ।
दादी गर्व करने के साथ संतान का मोह कभी ना छोड़ पाई, और हरदम इंतजार करतीं कि वर्दी पहने हुए आएगा मेरा बहादुर बेटा ।
ऐसा सोचते सोचते बेटे के पास ही चली गई ।
मां को ही दादा अपना बहादुर बेटा मानने लगे थे ,मां अब शांत हो चली थी ,।
याद आता जब भी कभी मां ,बापू की बात करती तो अपनी आंखों के गीलेपन को छिपाने की हरदम कोशिश करती रहती ।
दादा सूनी आंखों से क्षितिज को निहारते ,हर शहीद के परिवार का कमोबेश ऐसा ही हाल होता होगा।
शहीद का बेटा अब बूढ़ा हो चला है ,देख कर विचलित हो जाता है ,कि आजाद देश में आज भी गरीब अमीर की खाई अभी भी जस की तस है ।
अपने लोगों के बीच लड़कियों में असुरक्षा की भावना मन को आहत करने वाली है ।
स्वतंत्र देश में गरीब की थाली में दया की जूठन इतने वर्षों बाद भी ,हम इन वेडियों को नहीं काट पाए ।
आज भी हर नागरिक अपनों के बीच अपनों से ही एक अनजानी सी लड़ाई लड रहा है ।
जरा सी भी, किसी में चलने की ताकत आ जाए, वह अपनों को छोड़कर भाग रहा है ।
पहले विदेशी आक्रांता थे ,अब भीतरघाती ताकते हैं ,।
देश अभी तक अपनी मूलभूत सुविधाएं मुहैया ना करा सका ।
आज भी देश की अस्मिता की रक्षा के लिए सैनिक शहीद हो रहे हैं ।
सम्मान के साथ सब कुछ मिलने पर भी जिंदगी में रीतापन रह ही जाता है ,हर फौजी का परिवार अपनी बेटे की प्रतीक्षा की कल्पना में रहना ही चाहता है ।अपने सवालों के उत्तर, नीले बितान में खोजता रहता है शहीद का बेटा।
जया शर्मा (प्रियंवदा)
फरीदाबाद (हरियाणा)