डर के आकर्षण से बचना किसी के वश में नहीं है, डर एक ऐसा मोहपाश है जिसने हर किसी के मन को बाँध रखा है, डर में एक रोमांच है जो हर किसी को गुदगुदाता है।
अगर कोई आपसे कहता है कि वो किसी से नहीं डरता तो या तो वो पागल है या फिर उससे भी बड़ा पागल है, उन सारे पागलों में से एक मैं भी था।
आधी रात में उठकर अकेले मूत्र विसर्जन के लिए जाने के नाम पर डरने वाले लोग भी हॉरर मूवी को बहुत चाव से देखते हैं।
इस युग में मोबाईल और लैपटॉप वगैरह मध्यम वर्गीय छात्रों की पहुँच से दूर थे, मनोरंजन के साधन टेलीविजन, पुराने थियेटर और सरस सलिल पत्रिका हुआ करते थे।
ये वृतांत जनवरी २००२ का है, मैं उस समय नारायण महाविद्यालय, शिकोहाबाद में स्नातक प्रथम वर्ष का छात्र था और हम तीन रूममेट्स रोहित दुबे, प्रशान्त दुबे और मैं अवनेश गोस्वामी एक रूम में रहते थे।
शिकोहाबाद एक अल्पविकसित बड़ा सा कस्वा था, चूँकि ये हमारे घर से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर था इसलिए मेरे क्षेत्र के सारे विद्यार्थी यहीं आकर उच्चशिक्षा ग्रहण करने थे।
दिन पढ़ाई, मस्ती, घूमने, दोस्तों के साथ खाने-पीने और मूवीज़ देखने में गुज़र रहे थे।
फिर एक दिन अचानक
“भईया आप लोग कहीं और रूम देख लो,अगले महीने मेरे कुछ रिलेटिव्स २-३ महीने के लिए आने वाले हैं”
मकान मालिक की पत्नी को हमारे रूममेट रोहित दुबे का धूम्रपान करना पसन्द नहीं आया इसलिए मकान मालिक की पत्नी ने रूम खाली करने का फरमान दे दिया।
अभी इतनी जल्दी रूम मिलना बहुत मुश्किल था क्योंकि बैचलर्स को कोई इतनी आसानी से रूम नहीं देता था।
हम तीनों रूममेट्स थोडे से चिंतित से हो गए, जनवरी की कडकडाती हुई ठंड, घना कोहरा दिन में भी अंधेरे जैसा माहौल बना के रखता था और रात में कडकडाती हुई मीठी सर्दी मन में एक अलग ही तरह का आनंद और खौफ़ पैदा करती थी।
दिसंबर और जनवरी की रात में अकेले घर से बाहर निकलना सच में डर के आगोश में जाने समा जाने जैसा होता था।
मरते क्या न करते रूम ढूंढना शुरू कर दिया पर कोई भी हमें रूम देने को तैयार नहीं हुआ और इधर महीने की तारीख भी धीरे-धीरे पास आ रही थी।
बहुत मेहनत की और रूम के लिए दोस्तों को भी बोला,चूँकि कॉलेज का सेशन चालू था इसीलिए रूम भी खाली नहीं थे।
फिर एक दिन मेरे रूममेट ने बोला कि एक रूम मिल गया है।
हम लोग बहुत खुश हुए क्योंकि उस घर में कोई नहीं रहता था।
अगले दिन हम लोग रूम देखने के लिये उस पते पर गए तो पता चला कि वो घर नहीं एक पुरानी हवेली थी।
उस हवेली के सामने एक बहुत बड़ा बगीचा था जिसमें से होकर हवेली के मुख्यद्वार तक जाने का रास्ता था, ना जाने क्यों उस हवेली को देखकर शरीर में एक सिरहन सी दौड़ गई, उस दिन अहसास हुआ कि सच में हमारी त्वचा बहुत संवेदनशील होती है जो किसी नकारात्मक उर्जा को बहुत जल्दी महसूस कर लेती है।
हम तीनों रूममेट्स बगीचे के छोटे से दरवाजे को खोल के बगीचे से होते हुए मुख्यद्वार तक पहुँचे।
मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि इस कस्बे में भी इतनी बडी हवेली भी होगी, उस हवेली से जुड़ी हुई एक और हवेली थी, मैंने उस पूरे वातावरण का अवलोकन किया जो दिल में सिर्फ डर की भावनायें पैदा कर रहा था।
हवेली का मुख्य दरवाजा बिल्कुल रामसे ब्रदर्स की भूतिया हवेलियों जैसा था, हमने दरवाजे पर दस्तक दी और काफ़ी देर तक दस्तक़ देने के बाद दरवाजा खुला, दरवाजे के आगे एक और बड़ा दरवाजा था और दोनों दरवाजों के बीच में बड़ा औऱ चौड़ा दालान था जिसमें बहुत अंधेरा हो रहा था, इसमें से छत पर जाने के लिए बड़ी सी सीढ़ियां थीं।
हम लोग दालान से निकल कर हवेली के आंगन में आ गए, हवेली के आंगन से बस हवेली चारदीवारी ही दिखती थी और कुछ भी नहीं।
उस समय उस हवेली में उस हवेली की मालकिन और उनकी बेटी अपनी २ साल की बेटी के साथ थीं।
“बेटा आप लोग देख लो, अविनाश का फ़ोन आया था कि आप लोगों को १-२ महीने के रूम चाहिए।”
“हाँ आंटी जी एग्जाम होने के बाद हम रूम चेंज कर लेंगे बस २ महीने की दिक्कत है”
हमने केवल औपचारिकता के रूप हवेली को देखा, मुझे तो बस हर कोना भयानक लग रहा था, सबसे डरावना था बाथरूम जिसके अंदर एक कुंडी थी जो लगभग ५ फीट गहरी और ६ फीट चौड़ी थी, उस बाथरुम में नहाने की कल्पना मात्र से शरीर में सिरहन सी दौड़ गयी।
हमने ना बहुत कुछ पूँछा ना कुछ देखा।
हमारे रूममेट ने बताया कि ये हवेली एक राजपूत राजा की थी जो उन्होंने अपनी पत्नी को उपहार स्वरूप दी थी, हवेली का इकलौता वारिस अविनाश नोएडा में जॉब करता था इसलिए हवेली में कोई नहीं रहता था ये हमें अगले दिन शिफ्ट होने के बाद पता चला।
कुछ देर बाद हम लोग हवेली देख कर रूम में वापस आ गए।
“भाभी जी हमें रूम मिल गया है, हम लोग कल ही रूम छोड़ देंगे”
मकान मालकिन ने खुश होकर जाने की अनुमति दे दी।
मेरे मन में पता नहीं क्यों अजीब सी बेचैनी सी हो रही थी या एक भय जो हवेली को देखकर मन में बैठ गया था।
रात का खाना बनाया और वो बेमन से खाया।
“यार प्रशान्त वो हवेली कुछ ठीक सी नहीं लग रही है मुझे”
“अरे यार ऐसा कुछ नहीं है हम तीन लोग हैं ना कुछ भी अजीब नहीं लगेगा”
“नहीं यार ! मुझे तो वहाँ पर शिफ्ट होने से अजीब सी फीलिंग आ रही हैं, हमें कोई और रूम देख लेना चाहिए”
“देखो यार अब तो भाभी जी को भी बोल दिया है कि रूम कल खाली कर देंगे”
“ठीक है!अगर अच्छा नहीं लगा तो फिर कहीं और देख लेंगे”
“ठीक है यार, पर कुछ तो है, जो मुझे बिल्कुल ठीक नहीं लग रहा है”
“तुम ये राज मूवी का ट्रेलर देखना बन्द कर दो, अब सो जाओ यार , डराओ मत मुझे, कल सुबह जल्दी उठ के सामान शिफ्ट करना है”
सुबह उठने का तो बिल्कुल मन ही नहीं हो रहा था, रूम तो आज चेंज करना ही था।
“प्रशान्त यार एक बार फिर सोच लो, अभी ये महीना खत्म होने में ४ दिन बाकी हैं”
मैंने एक फिर प्रयास किया कि हवेली में शिफ्ट न होना पड़े,
पर ऐसा लग रहा था कि जैसे जो हो रहा है वो सब पहले से ही तय है।
कुछ सामान स्कूटर पर रख के हम दोनों रूममेट हवेली पहुँचे, उस दिन कोहरा ज्यादा होने से धूप भी नहीं निकली थी।
बगीचे का छोटा सा गेट खोलकर हम दोनों हवेली के बड़े मुख्यद्वार पर पहुँचे, मुख्यद्वार पर बड़ा सा ताला लटक रहा था, प्रशान्त ने ताला खोला और मुख्यद्वार को धक्का देकर खोल दिया, पुराना दरवाजा चरर्ररर……की आवाज करता हुआ खुलने लगा, दरवाजे के खुलने की आवाज हॉरर फिल्मों की याद दिला रही थी, आज दालान में कुछ ज्यादा ही अँधेरा लग रहा था, शायद घने कोहरे की वजह से।
एक अजीब सा गहरा सन्नाटा पूरी हवेली फैला हुआ था,
हम दोनों हवेली के आँगन से होते हुए उस रूम में आ गए जिस रूम में हमको सामान शिफ़्ट करना था।
वो रूम आजकल के रूम की अपेक्षा ३ गुना बड़ा था, उसमें लगा सीलिंग फैन कम से कम ५० किग्रा का होगा, दीवारों पर टँगे बारहसिंगा के सींग उस भयानक माहौल को और डरावना बना रहे थे।
हमने उस रूम में पहले से रखा हुआ सारा सामान पैक करना शुरू कर दिया….
कहानी जारी है ……….
रचनाकार – अवनेश कुमार गोस्वामी
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