नारी की अस्मिता केवल स्पर्श से ही आहत नहीं होती बल्कि जब पुरुष वर्ग की भेदती हुई  आँखें उसे घूरती हैं तब वह अंदर ही अंदर सिमटती हुई ऐसी पीड़ात्मक यातना से गुजरती है जिसे भुक्त भोगी ही एहसास कर सकता है। कुछ वैसी ही काल्पनिक व्यथा को अपने शब्दों का जामा पहनाने का प्रयास कर रही हूँ  -: एक जमाना गुज़र गया फिर भी टीस दे जातीं हैं वो घूरती आँखें आज भी याद है मुझे वो रंग बदलती आँखें, आज भी याद है मुझे।
वो धीरे से आँखें बचाकर
 जहाँ-तहाँ तेरे आँखों की चुभन  याद है मुझे।
बातों  ही बातों में असहज होकर, नजरें झुकाकर वो बातें बनाना आज भी याद है मुझे।
जबरदस्ती वो बड़प्‍पन का रुतबा दिखाना,
बात बेबात बेमतलब मुस्कराना फिर फिर नैनों के तीर चलाना आज भी याद है मुझे।
वो सपनों मे भी आँखों से तेरा मुझे छू जाना फिर अचकचा के
घबराकर उठ जाना आज भी याद है मुझे।
भीड़ में से  वो तन्ज की आवाजें आना, फिर आँचल को मेरा वो बार-बार सरकाना आज भी याद है मुझे।
अपने आँसुओं को छुपाना सहम कर सिमट जाना,फिर बहादुरी का अभिनय कर जल्दी से घर लौट आना,
घर के बाहर किसी को ना पाकर 
सुकून में आना आज भी याद है मुझे।
लक्ष्‍य पर जो टिकती वो तेरी गिद्ध-दृष्‍टि,
एक टक मेरे ज़ेहन में घुलती
वो तेरी जहरीली निगाहें आज भी याद हैं मुझे।
रचनाकार- सुषमा श्रीवास्तव, मौलिक रचना,सर्वाधिकार सुरक्षित, उत्तराखंड।
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