झांका करती थी एक बुज़ुर्ग हस्ती ,
हमें खेलता देख मन ही मन मुसकाती थी ।
शायद अकेलेपन से उकता गयीं थी वो ,
इसलिये खिड़की में बैठी रहती थी ।
बदन कमज़ोर हो गया था ,
घर के बाहर निकलने का दम ना बचा था ।
वो कैसे बहलाती दिल अपना,
घर में उसका कोई साथी भी ना था ।
सब अपने अपने काम में मसरूफ थे,
कौन देता उसको वक्त अपना ।
बिना किसी से शिकायत किये,
भरी आँखे खामोश लब मुस्कुराते थे ।
हम उनको देख कर अपनी दादी में खो जाते थे,
उनकी बेबसी देखकर मन ही मन कराहते थे ।
कभी हम भी उस दौर से गुज़रेंगे ,
ये सोच कर डर जाते थे ।
रोनक रहती थी जब वो हमें देखतीं थी,
कभी डांटती तो कभी पुचकारतीं थीं ।
एक दिन ऐसा आया ,
वो इस जहाँ से चल बसीं ।
अब सूनी हो गयी वो खिड़की ।
जो कभी गुलज़ार रहती थी ।
ढूंढा करती है मेरी अखियाँ उन्हे,
पर अब वो खिड़की बंद रहती है ।
हुमा अंसारी
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