तालकेतु ने रंभा को वचन तो दे दिया पर वह किसी भी तरह राजकुमार ऋतुध्वज जैसे वीर से मुकाबला करने को तैयार न था। जो खुद उसके भाई के गुप्त गृह में घुसकर उसका संहार कर सके, उसका सामना वह भला कैसे कर सकता था। दूसरी तरफ राजकुमार की अनुपस्थिति में राज्य पर आक्रमण कर मदालसा का वध करने की योजना भी उसे उचित नहीं लगी। महाराज शत्रुजित भी परम वीर थे। सही बात तो यह थी कि तालकेतु को वीरों से ही बड़ा भय लगता था।
   भले ही तालकेतु अपनी पत्नी के प्रेम को सही तरह समझ न पाया हो पर मदालसा के पति प्रेम के विषय में उसकी स्पष्ट राय थी। पहले भी वह सती स्त्रियों की गाथा सुन चुका था। मदालसा को सती मान उसने खुद एक बड़ा प्रपंच रच दिया तथा उस प्रपंच में सफल भी हो गया। रंभा को मदालसा की मृत्यु अभीष्ट थी और यमुना तट पर एक तपस्वी विप्र के वेष में अपनी तपस्या की पूर्ति के लिये कुछ यज्ञ सामग्री खरीदने की बात कहकर तथा राजकुमार से उसकी अंगूठी प्राप्त कर तालकेतु ने अपना मनोरथ प्राप्त कर लिया।
‘ विद्या कंठी में और पैसा अंटी में ‘एक पुरानी कहावत है। आजकल तो आनलाइन के समय में पूरी तरह सार्थक नहीं हो रही पर कुछ दशकों पूर्व तक पूरी तरह सत्य थी। घर के बाहर धनी से धनी व्यक्ति भी धन कम पड़ जाने पर कष्ट पाता था। पर राजकुमार की इस विषय में अलग योजना थी। बहुधा वह आवश्यकता होने पर अपने आभूषणों का उपयोग कर लेता था। उस दिन भी उसने एक विप्र रूप में छली तालकेतु को अपनी अंगूठी दी थी। वह विप्र राजकुमार को प्रतीक्षा करने की बोल नजदीकी कस्बे में चला गया था। जब वापस आया तब एक बैलगाड़ी में पूजा की सामग्री लेकर आया। राजकुमार का बहुत आभार व्यक्त किया। अभी तक राजकुमार को अनुमान भी न था कि उसके साथ कोई धोखा हो रहा है। उसकी प्राणप्रिया मदालसा उसके निधन की असत्य सूचना को सुन सत्य में प्रेम में अपना शरीर त्याग चुकी है। उसे ज्ञात न था कि जिस समय वह अपने राज्य की तरफ गमन करने की तैयारी कर रहा था, ठीक उसी समय सती मदालसा की अंतिम यात्रा आयोजित की जा रही थी।
  कुवलय के लिये दूरी भी कोई दूरी न थी। पर सच्ची बात है कि आज कुवलय से कुछ बिलंब तो हो ही गया। यदि वह कुछ समय पूर्व भी पहुंच जाता तो संभव था कि राजकुमार भी मदालसा का अंतिम दर्शन कर लेता।
  नगर के बाहर गोमती नदी के तट पर अपार जनसमुदाय देख एक बार राजकुमार खुद विचार मग्न हो गया। याद करने पर भी उसे किसी पर्व का ध्यान नहीं आया। जनसमुदाय भी विस्मृत हो राजकुमार ऋतुध्वज की तरफ देख रहा था। सभी शांत थे तथा गोमती नदी के तट पर एक चिता जल रही थी। खुद महाराज उस चिता के समक्ष हाथ जोड़ खड़े हुए थे।पुत्र को देख एक बार फिर से महाराज खुद को रोक न सके। आंसुओं के प्रवाह में महाराज कुछ बोल न सके। 
    सेवकों से सत्य जान राजकुमार के मन से विषाद का एक बड़ा तूफान उठा। राजकुमार प्रेम की परिभाषा में खुद को मदालसा से बहुत पीछे पा रहा था। सत्य बात है कि पुरुष प्रेम की लंबी लंबी बातें करते हैं। पर उन बातों को केवल स्त्रियां ही सत्य सिद्ध करती हैं। प्रेम दोनों ने ही किया था। पर मदालसा उसकी मृत्यु की झूठी सूचना सुन सत्य में अपना जीवन त्याग गयी। जबकि प्रेम के बड़े बड़े दावे करने बाला वह अपने समक्ष अपनी प्रिया की चिता देख भी जीवित खड़ा है। फिर तो खुद को और खुद के प्रेम को धिक्कारने के आधार हैं। 
   राजकुमार ऋतुध्वज को प्रकृतिस्थ होने में बहुत समय लगा। खुद को प्रेम परीक्षा में असफल समझने की ग्लानि मन में रह गयी। फिर वह ग्लानि एक सत्य और कठोर प्रतिज्ञा के रूप में बाहर आयी। 
  ” समस्त जन समुदाय। नभमंगल में किसी लोक में रहने बाले देवों। संसार को प्रकाशित करने बाले भगवान सूर्य। निर्मल जल से प्यास बुझाती गोमती माता। दस दिशाओं को आसरा देते दिग्गजों। और मेरी प्राणप्रिया के पथ के सहायक अग्नि देव। यह सत्य है कि प्रेम की इस परीक्षा मैं मदालसा से बहुत पीछे हूं। सत्य तो यही है कि एक पुरुष कभी भी एक स्त्री के प्रेम की समानता नहीं कर सकता। सत्य बात तो यही है कि एक पुरुष की याद में पूरा जीवन गुजार देने की क्षमता केवल स्त्रियों में ही कही गयी है। 
  आज मैं आप सभी को साक्षी मान प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं पूरा जीवन गंधर्वराज की पुत्री मदालसा की यादों में गुजार दूंगा। मदालसा के अतिरिक्त किसी अन्य कन्या के प्रति मेरे मन में यदि प्रेम उत्पन्न होता है तो उसी क्षण मैं अपने प्राणों की आहुति दे दूंगा। ऋतुध्वज की यादों में केवल मदालसा ही रहेगी। मदालसा यदि ऋतुध्वज के प्रेम में अपना जीवन भी त्याग सकती है तो ऋतुध्वज भी पूरा जीवन मदालसा के प्रेम को समर्पित कर सकता है। “
  भले ही प्रेम की परीक्षा में राजकुमार मदालसा से कमजोर लग रहा हो पर दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि यदि राजकुमार पूरे जीवन मदालसा के प्रेम को ही अपने जीवन का आधार बना लेता है तो निश्चित ही उसका प्रेम भी मदालसा के प्रेम की बराबरी कर लेगा। वास्तव में विरह में पल पल तड़पते रहना, प्रेम में अपने प्राण त्याग देने से किसी भी तरह कम तो नहीं। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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