श्रावण मास निकट था। सुजान और कापाली को अपने मित्र राजकुमार ऋतुध्वज से और अपनी मुंहबोली बहन से मिले वर्षों बीत गये थे। सुजान और कापाली भी नागदेश में अपने पिता के साथ राजकार्य में व्यस्त चल रहे थे। इतने समय में उनका जीवन भी बहुत आगे बढ चुका था। सही बात है कि जीवन के संघर्ष बहुधा विद्यार्थी जीवन की मित्रता को मन से ही उतार देते हैं। पर सच्ची मित्रता कभी मिटती नहीं। बार बार स्मरण आती है।
बहुत वर्षों बाद दोनों भाई अपने मित्र से मिलने चल रहे थे। मित्र की रुचि के अनुसार बहुमूल्य भेंट तैयार थीं। मुंहबोली बहन के लिये वस्त्रों और आभूषणों का संग्रह तैयार था। दोनों ही इस बात से अनजान थे कि इन उपहारों का आज कोई अर्थ नहीं है। मदालसा तो अपना जीवन ही त्याग चुकी है। तथा मदालसा के बिना ऋतुध्वज भी भोगों से निस्पृह हुआ मात्र जीवन ढो रहा है। अब वह न तो रेशमी वस्त्र धारण करता है और न ही अपने शरीर पर कोई आभूषण धारण करता है। बहुधा उसकी आंखें मदालसा की याद में गीली हो जाती हैं। अधिकतम समय वह परोपकार में लगा रहता है। खुद का सुख अब वह पूर्णतः भूल चुका है।
मदालसा को उन दोनों ने अपनी बहन स्वीकार किया था। जब दोनों भाई श्रावण मास में अपनी बहन से रक्षासूत्र बंधवाने पहुंचे, फिर पूर्ण सत्य जान फूट फूटकर रोने लगे। स्थिति यह आयी कि उन्हें शांत करना कठिन हो रहा था।
कुछ महीने मित्र के साथ और बहन के साथ रहने का निश्चय कर आये दोनों युवा बहुत ज्यादा दिन रुक न पाये। या तो खुद की पीड़ा छिपा सकने की असमर्थता थी अथवा राजकुमार ऋतुध्वज की पीड़ा को देख सकने में खुद को असहाय अनुभव कर रहे थे।
अतिशीघ्र वापस आये पुत्रों को पिता अश्वतर ने बुलाया। फिर सारी बात सुन खुद दुखी हो गये। दो पुत्रों के पिता होकर भी पुत्री रहित महाराज अश्वतर को मदालसा खुद की पुत्री लगती थी। विषाद के अवसर पर उन्होंने खुद पर संयम रखा। ईश्वर की इच्छा के प्रतिकूल कुछ भी नहीं किया जा सकता है। संसार छोड़कर गया कब संसार में वापस आता है।
नहीं। ऐसा सत्य तो नहीं ।संसार त्यागने बाला संसार में वापस आ सकता है। आवागमन का चक्र चलता रहता है।
अश्वतर की धारणा में परिवर्तन हुआ। प्रयत्न करने बाले को ही सफलता मिलती है। ईश्वर के विधान को फिर से अनुकूलता में बदलने का उपाय सोचने लगे। पर खुद किसी निश्चय पर नहीं पहुंच पाये। कभी बचपन में सीखे संगीत को वह कब का भूल चुके थे। पर इस समय उनकी सफलता की राह मात्र उनके संगीत से ही खुल सकती थी।
प्रयास से भूली हुई विद्या भी स्मरण आ जाती है। पर केवल प्रयास ही पर्याप्त नहीं है। प्रयासों से सफलता एक लंबी प्रक्रिया है। पर यह समय अधिक समय प्रतीक्षा का तो नहीं था।
सरस्वती नदी के उद्गम स्थल पर महाराज अश्वतर विद्या और संगीत की देवी माता सरस्वती की आराधना कर अपना संगीत अभ्यास करने लगे। माता के आशीर्वाद से शीघ्र ही तानपूरा वादन और भजन गायन में उच्चतम स्थिति तक पहुंच गये।
एक दिन महाराज अश्वतर देवाधिदेव महादेव के धाम कैलाश पहुंच भगवान शिव को प्रणाम कर उनकी स्तुति का गान करने लगे। स्वर उनके साथ था। तानपूरा पर चलती अंगुलियां गान को अद्भुत रस प्रदान कर रही थीं। ऐसे सस्वर गान पर कोई भी मंत्रमुग्ध हो सकता है। फिर भगवान शिव तो ठहरे भोले भंडारी।
” परम भक्त। इस विनय गान को सुन मैं तुम्हें कुछ भी अर्पण कर सकता हूं। कुछ भी मेरे लिये अदेय नहीं है। यदि भक्त की इच्छा पूर्ण करने में मुझे प्रकृति के विपरीत कुछ करना पड़े, तो भी अवश्य दूंगा। आप निःसंकोच अपना अभीष्ट बतायें।”
भगवान शिव से आश्वस्त महाराज अश्वरथ ने भगवान शिव को पुनः प्रणाम किया। प्रकृति के विपरीत कार्य को भी प्रकृति के साथ संपादित करने के लिये वर प्राप्ति ही एकमात्र साधन था। इस समय उनका साधन पूर्णता प्राप्ति के बहुत निकट था।
” देवाधिदेव। सत्य तो यही है कि आपसे कुछ भी अविदित नहीं है। मेरा मनोरथ सर्वदा गुप्त होकर भी आपसे तो गुप्त नहीं है। मैं तो यही मानता हूँ कि इस तरह आपकी आराधना द्वारा अपने उद्देश्य को प्राप्त करने का विचार भी आपकी ही इच्छा का परिणाम है। प्रकृति निश्चित ही आपकी आज्ञा की अनुगामिनी है। फिर भी प्रकृति के नियमों का तोड़ना मैं अधिक उचित नहीं मानता, जबकि और भी बेहतरीन उपाय हों। देवों के भी देव। गंधर्व नरेश की दुहिता मदालसा मेरे पुत्रों के मित्र राजकुमार ऋतुध्वज की पत्नी थी। मदालसा के साथ मेरे पुत्रों का बहन जैसा व्यवहार रहा है। किसी मायावी की माया के कारण मदालसा अपना जीवन त्याग चुकी है। वैसे किसी भी मृत को जीवित करना आपके लिये असंभव नहीं है। फिर भी मेरी इच्छा है कि गंधर्व कन्या मदालसा मेरी पत्नी के गर्भ से पुनर्जन्म लेकर मेरी पुत्री बने। देव। मेरी यही कामना है। “
भगवान शिव के आशीर्वाद के साथ ही मदालसा की अपूर्ण प्रेम कहानी के पूर्ण होने की भूमिका तैयार हो गयी। गंधर्व कन्या के रूप में राजकुमार ऋतुध्वज की जीवन संगिनी बनी मदालसा की गाथा भला तब तक कैसे पूर्ण हो सकती है जब तक कि वह खुद राजकुमार के जीवन के परम लक्ष्य वैराग्य पथ की भी रूपरेखा तैयार न कर सके। जब तक कि वह प्रेमिका और पत्नी की भूमिका से आगे बढ़कर एक माता की ऐसी अनोखी भूमिका से संसार को परिचित न करा दे जिसके विषय में कल्पना करना भी आसान न हो।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’