स्वर्ग लोक, वैभव और सुख का पर्याय। तथा इन्हे परिभाषित करतीं हैं अप्सराएं। पता नहीं कि नाच कर मनोरंजन करना भला किस तरह सुख का पर्याय हो सकता है। सत्य है कि शायद स्वर्ग लोक सुख का लोक नहीं है। शायद मन की अतृप्त इच्छाओं का लोक है। निश्चित ही मन को जीत पाना बहुत कठिन है। जीवन भर ईश्वर आराधन में भोगों से दूर रहते आये लोगों के मन से भी इच्छाओं का ज्वार समाप्त नहीं होता है। इन्हीं इच्छाओं का द्योतक है स्वर्ग लोक। विभिन्न कथाओं में यही सिद्ध होता है कि इच्छाएं मनुष्य को अकर्मण्य बनाती हैं। इच्छाओं की पूर्ति में लगा मनुष्य हमेशा कमजोर होता है। फिर सृष्टि का चक्र कुछ इस तरह चलता है कि अनेकों समय तक इच्छाओं की पूर्ति में अकर्मण्य रहे लोगों से भी वे इच्छाएं जबरन छिन जाती हैं। फिर दर दर की ठोकर खानी होती है।
जिस तरह अप्सराओं का नृत्य स्वर्ग का वैभव है, उसी तरह गंधर्वों का संगीत एवं गान भी स्वर्ग को रौनक प्रदान करता है। लगता है कि अप्सरा और गंधर्व दोनों ही कलाजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। अप्सरा यदि किसी फिल्म की अभिनेत्री हैं तो गंधर्व उस फिल्म में संगीत देने बाले संगीतकार और गायक। निश्चित ही बिना अच्छे संगीत के कोई भी फिल्म सफल नहीं होती है।
महाकवि कालिदास अपने नाटक विक्रमोर्वशीयम् में लिखते हैं कि देवलोक में हो रहे एक नाटक में उर्वशी देवी लक्ष्मी का अभिनय कर रही थीं। पर प्रेम के ज्वार में संवाद भूल गयी। फिर विष्णु के स्थान पर पुरुरवा बोलने लगी।
अप्सराओं के विषय में तो कहा नहीं जा सकता पर विभिन्न आख्यानों के आधार पर कहा जा सकता है कि गंधर्व निश्चित ही अनेकों विधाओं के जानकार हैं। गंधर्व केवल स्वर्ग लोक में प्रेम गीत सुनाने तक नहीं रुके। अपितु उन्होंने खुद से भक्ति गीतों की अलग परंपरा आरंभ की है। देवाधिदेव महादेव और भगवान विष्णु की प्रशंसा में अक्सर विभिन्न वाद्यों के साथ गीत गाते हैं। लगता है कि गंधर्व वे साधक हैं जो ऊपर तो उठना चाहते हैं। पर जीवन जीने की बाध्यता के कारण उठ नहीं पाते। वे ईश्वर भक्ति में पूरी तरह डूब जाना चाहते हैं। पर ऐसा कर नहीं पाते। जीवन जीने के लिये प्रेम गीतों को गाने के लिये बाध्य होते हैं।
विंध्यवान एक बेहतरीन गायक, बेहतरीन संगीतज्ञ गंधर्व, जिनका पूरा देव लोक सम्मान करता था, अपनी पुत्री कुण्डला को भी संगीत की शिक्षा दे रहे थे। समय के साथ साथ कुण्डला की कुशलता बढती गयी। फिर एक दिन विंध्यवान अपनी बेटी को स्वर्ग की सभा में ले गये। आज भरी महफिल में कुण्डला ने पहली बार गाना गाया। दूसरे गंधर्वों ने विभिन्न वाद्ययंत्रों द्वारा उसका साथ दिया।
लगा कि शायद स्वयं माता सरस्वती कन्या के गले में बैठी हों। समस्त देव लोक उस गान पर मुग्ध हो गया।
देवलोक में हमेशा से सुंदरता देखता आया पुष्कर माली आजतक किसी पर मोहित नहीं हुआ था। पर आज एक कन्या के स्वर ने उसके मन को जीत लिया। उर्वशी और मेनका जैसी सौंदर्य राशि को छोड़ पुष्कर माली का मन कुण्डला के मनोहर कंठ का प्यासा बन गया। सत्य ही है कि सच्चे प्रेम के लिये सुंदरता आवश्यक नहीं है। प्रेम मन की गहराई में होता है। पुष्कर माली को कुण्डला की सादगी भा गयी।
कुण्डला भी आयु के उस मोड़ पर थी जबकि उसका मन भी किसी पुरुष के प्रति आकर्षित हो सकता था। देवलोक में जब वह गान कर रही थी, उस समय देवराज इंद्र के साथ साथ सूर्य, चंद्र, पवन, अग्नि, वरुण , यम तथा और भी अनेकों शक्ति के पर्याय देव मौजूद थे। इन अनंत सामर्थ्यवान देवों के सापेक्ष पुष्कर माली कुछ भी न था। वह अग्रिम पंक्ति में बैठा भी न था। पर दिल के डोर दिल से बंधे होते हैं। युवती कुण्डला के मन में भी प्रेम का बीज अंकुरित हो गया। कुण्डला को भी पुष्कर माली मन ही मन भा गया।
कुण्डला अपने पिता के साथ अक्सर स्वर्ग आती थी। पुष्कर माली को प्रभावित करने के लिये हर बार और बेहतर तरीके से गाती थी। पुष्कर माली भी कुण्डला के गान को सुनने हमेशा उपस्थित होता था। दोनों ही तरफ प्रेम की अग्नि प्रज्वलित थी। पर दोनों ही शांत थे। दोनों ही अपनी स्थिति समझते थे। दोनों को ही विश्वास न था कि दूसरा भी उससे उसी तरह प्रेम करता है जिस तरह वह खुद दूसरे को।
एक दिन पुष्कर माली ने ही कुण्डला के कंठ की तारीफ करने का साहस किया। फिर दोनों अक्सर मिलने लगे। हालांकि अभी भी दोनों अपने प्रेम का इजहार करने से कतरा रहे थे। दोनों ही दूसरे के मन के लिये आश्वस्त नहीं थे। न तो पुष्कर माली स्वीकार करता था कि अनेकों शक्तिशाली देवों के मध्य कुण्डला उसे ही प्रेम करती है। कुण्डला भी यही समझती रही कि भला अनेकों सुंदरी अप्सराओं के बाबजूद कोई उसे कैसे प्रेम कर सकता है। सत्य था कि दोनों ही अपने वियोग से भयभीत थे। अभी गायन की चर्चा के बहाने दोनों को एक दूसरे का साथ तो मिल जाता है। प्रेम प्रगट करने के बाद शायद वह भी न मिले।
प्रणय निवेदन की इच्छा ने दोनों के ही मन को विदीर्ण कर दिया। कितना भी बड़ा रहस्य हो, एक न एक दिन प्रगट होता ही है। फिर निश्छल प्रेम तो विभिन्न तरीकों से अपने अस्तित्व को प्रगट कर ही देता है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’