भगवान बृह्मा के आगमन के बाद भी वह तपस्वी अपने नैत्र बंद किये रहा। जैसे कि वह अपने आत्मतत्व में खो गया हो। बहुत समय से लगातार आत्म तत्व का चिंतन करते करते वह उसी चितन में बाहर ही न आ पा रहा हो। अथवा यह भी संभव है कि इतनी कठोर तपस्या के बाद भी उसे आत्म तत्व का साक्षात्कार न हुआ हो। आत्म तत्व अपेक्षाकृत गहन चिंतन है। विंषय भोगों की कामना भला कब आसानी से मन से मिटती है। मनुष्य पूरे जीवन जिसका चिंतन करता रहता है, कठोर तपस्या के बाद भी उसी का ही चिंतन करता है। परमार्थ तत्व को बचपन से ही अपनाते रहे साधक जब नयन बंद कर साधना करते हैं, उस समय भी वे उसी परमार्थ तत्व का ही चिंतन करते हैं। उस समय भी उनके विचारों के सागर में इस असार संसार को पार करने के उपायों का ही अन्वेषण होता रहता है।
   दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी आराधना ही भोगों की कामना से आरंभ होती है। वे जब नैत्र बंद करते हैं, उस समय भी अनेकों भोगों में विचरते रहते हैं।
  एक जैसी क्रिया के उपरांत भी अलग अलग चिंतन, अलग अलग तरीके का प्रभाव उत्पन्न करता है। अनेकों बार कठोर आराधना से विश्व का हित होता है। वहीं अनेकों बार भोगों की लालसा से की गयी कठोर साधना पूरे विश्व के दुख का भी कारण बन जाती है।
  ” असुर श्रेष्ठ। तुम्हारा कठिन तप फलीभूत हुआ। मैं संसार का पिता बृह्मा तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं। इस समय तुम मुझसे कोई भी वर मांग सकते हों। अपनी सामर्थ्य के अनुसार मैं तुम्हें निराश नहीं करूंगा।”
  तपस्वी ने आंखें खोलीं फिर एक बार अपनी सफलता पर मुस्कराया। निश्चित ही सफलता पर प्रसन्नता होती है। पर उस असुर तपस्वी की प्रसन्नता शीघ्र ही कुटिल मुस्कान से भयानक हसी में बदल गयी। उसका हास्य इतना भयानक था कि वन के पशु भी भरभीत होकर भागने लगे।
” जगत के पिता को महिषासुर का प्रणाम। जानता हूं कि आपकी वर देने की एक सीमा है। आप मुझे मेरा मन वांछित वर नहीं दे सकते। एक साधारण परिवार में जन्मे पर बड़े ख्वाबों को रखने बाले मुझ असुर के ख्वाबों को पूरा कर पाने की सामर्थ्य आपने है ही नहीं। पर सत्य यही है कि मुझे अपने ख्वाबों को पूरा करना आता है। अपार भोगों की इच्छा से आरंभ मेरा यह तप मुझे अनंत भोगों की ही प्राप्ति करायेगा।
   जगत पिता। आपने संसार की रचना करते समय एक भूल कर दी। आपने स्त्रियों को भले ही सुंदरता जैसे गुणों से सींचा पर स्त्रियों को कोमलांगी बनाकर उन्हें शक्ति से बंचित कर दिया। सत्य है कि स्त्रियां कभी भी पुरुष से मुकाबला नहीं कर पातीं। पुरुष हमेशा अपनी शक्ति के आधार पर स्त्रियों को अपने आधीन रख पाने में सक्षम रहा है।
   जगत पिता। मुझे वर दीजिये कि त्रिलोकी में कोई भी पुरुष, चाहे वह मनुष्य, देव, दानव, यक्ष, किन्नर, नाग हो, मुझे जीत न सके। मैं पूरी त्रिलोकी के सभी पुरुषों से अबध्य रहूं। फिर पूरी त्रिलोकी के सभी पुरुषों से अजेय पूरी त्रिलोकी पर मेरा ही अधिकार होगा। “
  इस बार महिषासुर की दानवी हंसी फिर से गूंजी। पर अब तक सारे वन्य पशु बहुत दूर जा चुके थे। जगत पिता के मस्तक पर चिंता की रेखाएं स्पष्ट दिखाई दे रही थीं। बहुत समय से अपनी कठोर तपस्या से तपस्वियों का आदर्श बना एक असुर अपने उद्देश्यों से सिद्ध कर रहा था कि क्रिया पर किस तरह भावों की प्रधानता होती है।
  जगत पिता ने एक बार फिर से महिषासुर को समझाने का प्रयास किया।
  ” असुर श्रेष्ठ। निश्चित ही आप जैसी कठोर तपस्या बहुत कम तपस्वियों ने की है। निश्चित ही आज पूरी त्रिलोकी के सारे तपस्वियों के आप ही आदर्श हों। फिर जरा बड़ा सोचो। खुद से ऊपर सोचो। भोगों से भी ऊपर कुछ मांगों। जीवन तो नाशवान है। एक न एक दिन सभी का नाश होता ही है। “
  ” जगत पिता। आपको वर नहीं देना तो मत दें। जिस तरह मैं कठोर तप कर सकता हूं, उसी तरह अपने उद्देश्यों को पाने के लिये कोई भी कठोर काम कर सकता हूं। मुझे नहीं लगता कि कुछ भी भोगों से श्रेष्ठ है। लगातार आत्मतत्व की प्रशंसा करते रहने बाले भला किस तरह खुद से ऊपर किसी को मानते हैं। निश्चित ही खुद का सुख ही महत्वपूर्ण है। निश्चित ही भोग ही जीवन का लक्ष्य है। इसके अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है। “
   तर्क का उत्तर हो सकता है। पर किसी भी कुतर्क का कोई उत्तर नहीं होता। लगता है कि प्रत्येक घटना के पीछे कोई आधार होता है। लगता है कि सृष्टि की स्थापना के बाद से ही पुरुष को सही दिशा देती आयी स्त्री को अपनी शक्ति से विश्व को परिचित कराने की ही इच्छा सर्व व्यापी माता आदि शक्ति की हो रही हो। फिर माता आदिशक्ति की इच्छा पूर्ति के हेतु ही एक असुर और जगत पिता बनने जा रहे हों। सृष्टि के आरंभ से ही स्त्री की उदारता को उसकी कमजोरी समझने बाले पुरुषों को स्त्रियों की सामर्थ्य समझाने का ही निमित्त एक असुर और जगत पिता बन रहे हों। सत्य है कि स्त्री सृष्टिकर्ता की वह रचना है जो हर तरीके से न मजबूत है अपितु किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करना में सक्षम है। निश्चित ही स्त्री की विशेष योग्यता के कारण उसे माॅ बनने का अधिकार दिया गया है। स्त्री जो एक माॅ है, भला किस तरह शक्तिहीन है। पर सत्य यही है कि अनेकों बार उदारता को शक्तिहीनता मान लिया जाता है। फिर शक्ति का प्रदर्शन आवश्यक ही नहीं अपितु अपरिहार्य बन जाता है।
क्रमशः अगले भाग में 
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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