स्वर्ग की सभा में इंद्रासन पर बैठ महिषासुर सुंदर अप्सराओं के नृत्य देखने में तल्लीन था। उसे अनुमान ही न था कि कोई उसका विरोध करने का साहस भी कर सकता है। वैसे भी देवों की सोच में सबसे शक्तिशाली भगवान विष्णु को भी वह पराजित कर ही चुका था। इस समय उसे अप्सराओं के नृत्य के स्थान पर देवों को अपना दास बनाने की भावना में अधिक आनंद आ रहा था।
   सहसा रंग में भंग हो गया। पुष्कर माली कुछ चुनिंदा देवों के साथ देव सभा में आकर गुलामी कर अपने प्राणों की रक्षा कर रहे दूसरे देवों की भर्त्सना करने लगा।
”  सच है कि भोगों ने देवों के मन और बुद्धि को भी नष्ट कर दिया है। सच है कि देव इस समय अपने उन प्राणों की रक्षा में लगे हैं जिन्हें कोई भी नहीं बचा पाया। जिसका जन्म होता है, उसका मरण भी निश्चित है। मानवों की तुलना में बहुत अधिक जीवन का अर्थ कभी भी नहीं है कि देव अमर हैं। अमरत्व तो निश्चित ही आवागमन से मुक्ति है। तथा भोगों में अपने पुण्यों को अर्पित करते रहे देव समाज के लिये शायद दिवा स्वप्न ही है।
   आश्चर्य की बात है कि जिन देवों का अस्तित्व ही विश्व कल्याण के लिये हुआ है, वे अनेकों देव भी इस समय अपने उद्देश्यों को भूल रहे हैं। लगता है कि मृत्यु का भय ही ऐसा होता है कि जीव उन शास्वत सत्यों को भूल जाता है।
   अग्निदेव। बताइये कि क्या आपके बिना यह सृष्टि संभव है। देव हो या दानव, भला कौन आपके बिना एक क्षण भी जी सकता है।
   भगवान सूर्य। निश्चित ही यह सृष्टि आपके ही प्रकाश से प्रकाशित है। फिर जब तक सृष्टि रहेगी और जब तक कोई इस सृष्टि में जीवित रहना चाहेगा, उस समय तक को आपका अंत नहीं है।
   पवन देव। कैसे संभव है कि कोई असुर भी प्राण वायु के बिना जी सके। फिर आपका निधन तो सभी असुरों का ही निधन है।
  यही स्थिति संभवतः जल के देव वरुण देव की है।
  सत्य है कि मनुष्य स्वर्ग में देव बनकर अपने कर्मों का फल भोगता है। जब फल भोग लेता है, उसी समय वह अपना देवत्व छोड़ देता है।
   वास्तव में देवत्व तो प्रकृति ही है। जो सृष्टि के आरंभ से सृष्टि के अंत तक रहेगी।
  प्रकृति के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करने बाले देवों का इस समय खुद की सामर्थ्य को भुला देना निश्चित ही लज्जा की बात है।
  लगता है कि झूठी मृत्यु के भय से अधिकतर गुलामी के झूठे जाल में फस रहे हैं। जैसे एक बांस पर उल्टा लटका शुक खुद को बंधन में समझ लेता है, कुछ वही स्थिति हमारे देव समाज की है।
   मैं तो अमर नहीं हूं। मैं अमरत्व का अहंकार भी नहीं करता। मैं अपने प्राण देकर भी इस तरह की गुलामी को स्वीकार नहीं करता। मैं अन्यायी के समक्ष समर्पण करने के स्थान पर अपना जीवन त्यागना ही पसंद करूंगा। “
पुष्कर माली की ललकार ने आग में घी डालने का काम किया। अप्सराओं ने नृत्य बंद कर दिया। निश्चित ही अनेकों देव उस समय भी भयभीत थे। अनेकों को नवीन परिस्थिति में अपना जीवन और भोग दोनों ही संकट में लगने लगे। पर कुछ देव तो निश्चित ही पुष्कर माली के समर्थन में अपना जीवन दाव पर लगाने आ ही गये। शक्तिशाली देव भी जोश में भर गये। ऐसे में असुरों ने देव सभा से हट जाना ही उचित समझा। स्वर्ग लोक से बाहर भयानक देवासुर संग्राम आरंभ हो गया।
   भयानक युद्ध का परिणाम निश्चित भयानक रहा। निश्चित ही देव असुरों को हरा नहीं पाये पर असुरों के दासत्व से तो मुक्त हो गये। विरोध का उचित परिणाम हुआ।
  इन सबके मध्य एक दुखद या सुखद घटना घटित हो गयी। आत्मबलिदान की राह पर चलने की इच्छा रखे पुष्कर माली ने वास्तव में आत्म बलिदान कर दिया। परम शक्तिशाली शुंभ के साथ युद्ध करते हुए पुष्कर माली वीरगति को प्राप्त हुआ। पुष्कर माली की पवित्र आत्मा एक देव का शरीर त्याग सच्चे अमरत्व की राह पर चल दी। क्षीरसागर में शयन कर रहे भगवान विष्णु के चरणों में समा कर पुष्कर माली आवागमन के चक्र से मुक्त हो गया।
   देवासुर संग्राम के बाद स्वर्ग एक बार फिर असुरों के अधिकार में आ गया। पर अब पराजित होने के बाद भी कोई भी देव असुरों की गुलामी नहीं कर रहा था, इसका श्रेय केवल पुष्कर माली के बलिदान को ही जाता है। गिर कर फिर से उठा जा सकता है। मिटने के बाद एक बार फिर से सृजन संभव है। भूल के बाद भी सुधार संभव है।
  निश्चित ही संकट के बादल छंट गये पर अभी मिटे नहीं थे। क्रिया की प्रतिक्रिया उतनी ही कठिन होती है। भोगों को ही सुख मानने बालों का आत्म बल कभी भी चकनाचूर हो सकता है।
   दूसरी तरफ कुण्डला निश्चित नहीं कर पा रही थी कि अपने पति के बलिदान का शोक मनाये अथवा उनकी मुक्ति की खुशियां मनाये। कभी आंसुओं से कुण्डला के गाल गीले हो जाते तो कभी वह अपने आंसुओं को पोंछ देती। निश्चित ही पुष्कर माली ने अमरत्व प्राप्त किया तो इसके पीछे का कारण कुण्डला ही थी। अब कुण्डला नहीं जानती थी कि पति के बलिदान के बाद भी उसके जीवन का क्या महत्व है। क्या वह पुष्कर माली से प्रेम नहीं करती थी। क्या पति के निधन के बाद अपने प्राण त्याग देने बाली स्त्रियों की कहानियाॅ झूठी हैं।
  नहीं। पति के प्रेम में अपने प्राणों का बलिदान करने बाली स्त्रियों की कहानियों में कहीं झूठ नहीं है। फिर पुष्कर माली के बलिदान के बाद भी मेरे शरीर से प्राणों का न जाना। संकेत यही है कि मेरा प्रेम सच्चा नहीं है। हा देव। सत्य है कि मेरा पुष्कर माली से प्रेम सच्चा तो नहीं है। निश्चित ही पति के आवागमन के चक्र से मुक्ति पर अश्रु बहाना उचित नहीं। फिर भी इस समय अश्रु उचित है। पति के बलिदान के बाद भी जिस प्रियतमा के प्राण प्रयाण न करें, उसके पास शोक मनाने के पर्याप्त आधार हैं।
   फिर कुण्डला ने अपने आंसुओं की धार को न रोका। धीरे-धीरे आंसुओं के सैलाब की बाढ सी आ गयी। कुण्डला का खुद को धिक्कारने की आवाजें स्वर्ग के वातावरण में गुंजने लगीं।
क्रमशः अगले भाग में 
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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