बहुत काल तक खुद को कमजोर समझते रहे आसानी से अपनी शक्ति नहीं पहचानते हैं। सही बात है कि सदियों से सुनते आये सिद्धांतों तथा मर्यादाओं की बेड़ियों से बंधे रहते हैं। वैसे ये मर्यादा की बेड़ियाँ कभी भी कमजोरी का प्रतीक नहीं होती हैं। अपितु विवेकशीलता का ही द्योतक होती हैं। पर अनेकों बार परिस्थितियों में बदलाव के बाद विचारों तथा क्रियाओं में भी बदलाव करना आवश्यक होता है। अनेकों बार मर्यादा की रेखा भी पार करनी होती है। वास्तव में परिणाम अधिक महत्वपूर्ण है। उत्तम सोच की इच्छा से किया गया कुछ निकृष्ट सा कार्य भी उत्तम ही मानने योग्य है।
   अपने पति को सम्मान देना तथा उनकी सेवा करना भारतीय स्त्रियां हमेशा से अपना धर्म समझती आयी हैं। पति भक्ति के प्रभाव से अपराजेय शक्तियां प्राप्त परम सती स्त्रियों की कहानियों का एक बड़ा संग्रह है। परम सती बनने का अनुसरण करती रही स्त्रियां अनेकों बार यह भूल जाती हैं कि वे अपने पति की जीवन संगिनी से अधिक धर्म संगिनी हैं। फिर उन्हें अपने पति के जीवन और धर्म के लिये उसका विरोध करना भी कोई गलत तो नहीं है।
   पृथ्वी लोक पर कुण्डला के प्रयास धीरे धीरे असर दिखाने लगे। आरंभिक विरोध के बाद उसे कुछ स्त्रियों का समर्थन मिलने लगा। सभी पक्षों में तो नहीं, पर कुछ पक्षों में कुण्डला को आंशिक सफलता मिलने लगी। मदिरा पान कर घर आये पतियों का स्वागत पत्नी के विरोध से होने लगा। अनेकों बार जब पति अपनी शक्ति के अहंकार में पत्नी के विरोध की अवहेलना करता तब विरोध का रूप उग्र होकर एक पत्नी की मान्य मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को पार कर जाता। पति को समझ आ जाता कि अब उनकी पत्नी शक्तिहीन नहीं है। वह विरोध भी कर सकती है।
    लंपट असुरों द्वारा मार्ग में छेड़छाड़ का शिकार होती सुंदर युवती को मार्ग पर जा रही अन्य स्त्रियों का साथ मिल जाता तो उस लंपट असुर के लिये चुपचाप निकल भागना ही एक उपाय बचता।
   अब अनेकों घरों में स्त्रियां अपनी बेटियों को भी बेटों की भांति शिक्षा प्रदान कराने की जिद करने लगतीं। फिर सभी तो नहीं, पर अनेकों बेटियां गुरुकुल का मुख देखने लगीं।
   निश्चित ही प्रयासों में कुछ सफलता मिल रही थी, पर वास्तव में यह तो एक आरंभ था। असुरों का नाश केवल स्त्रियों के प्रयासों से ही संभव है। जब तक स्त्रियां मिलकर असुरता का विरोध नहीं करतीं, असुरता अपना प्रभाव जमाती रहती है। फिर स्त्रियों को ही आगे बढकर उनका संहार करना होता है। निश्चित ही अभी कुण्डला के प्रयासों को बहुत आगे बढना है।
   माता आदिशक्ति को अपनी तपस्या से प्रसन्न करने बाले विप्र कात्यायन की धर्म संगिनी गर्भवती हुईं। विप्र ने अपनी सामर्थ से खुशियां मनायी। वहीं स्वर्ग लोक में देव तो माता के आगमन की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। उसी समय एक अन्य महत्वपूर्ण घटना भी चुपचाप घटित हो रही थी। माता के जीवन के उद्देश्यों में उनका साथ देने के लिये अनेकों देवियाँ जो विभिन्न देवों की शक्तियां भी थीं, वे भी धरती पर विभिन्न स्थानों पर जन्म लेने लगीं। उनमें से कुछ माता आदिशक्ति से पूर्व ही धरती पर आ गयीं तो कुछ के जन्म का समय माता के जन्म के बाद का निश्चित हुआ।
   बेटों के जन्म पर मनुष्य हमेशा बड़ा उत्सव मनाता है। पर कात्यायन ने बेटी के जन्म पर ऐसा आयोजन किया जो धनियों के लिये असंभव था। वैसे भी बेटियां अपना भाग्य लेकर ही आती हैं। कात्यायन ने पूरे गांव भर में हलुआ और पूरी की दावत देकर सिद्ध कर दिया कि वह अपनी बेटी कात्यायनी को भी वही प्रेम देंगें जो कि अधिकांश मनुष्य अपने बेटों को ही देते हैं। कात्यायनी भी अपने जीवन में वे सारे साधन पायेगी जो कि प्रायः बेटियों के लिये स्वप्न ही होते हैं।
   एक ब्राह्मण के लिये आय का सर्वश्रेष्ठ साधन विद्यादान कहा जाता है। खुद अभावों में जीवन जीते रहने के आदी कात्यायन जब बिटिया के पिता बने तब पहली बार उन्हें आय का महत्व समझ आया। अकिंचन वृत्ति के अलावा भी जीवन जीने के अनेकों तरीके होते हैं। पिता हमेशा अपनी संतान के सुख की चाह रखता है।
   जब विद्या भी एक व्यापार बन जाये, उस समय  विप्र कात्यायन द्वारा एक लगभग निःशुल्क गुरुकुल की स्थापना करना अनेकों बदलावों का पर्याय बनने जा रहा था। आखिर एक तो उनके गुरुकुल में शिक्षा की बिक्री नहीं हो रही थी, दूसरा उनके गुरुकुल में कन्याओं को भी शिक्षा दी जाती थी। वास्तव में गुरुकुल की स्थापना का मूल उद्देश्य ही कन्या शिक्षा का प्रचार करना था। बेटों के स्नेह में अंधे मनुष्य उन्हें तो किसी भी शिक्षा बिक्री केंद्र पर भेज सकते थे। पर बेटियों की शिक्षा पर व्यय करना वैसे भी अधिकांश की सोच से परे था।
  यह अलग बात रही कि बेटियों को सस्ती शिक्षा के रूप में आरंभ किया काल्यायन का गुरुकुल शीघ्र ही गुणवत्ता के सारे मानकों पर खरा उतरने लगा। धीरे-धीरे उनके गुरुकुल में अनेकों योग्य शिक्षक और शिक्षिकाएं शिक्षा देने लगे। ईश्वर की कृपा से असंभव से असंभव कार्य सफलता की राह पकड़ लेते हैं।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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