शुंभ और निशुंभ दोनों भाई परम वीर और पराक्रमी, शक्ति में महिषासुर के पूर्ण समकक्ष, महिषासुर के परम मित्र थे। वैसे समान विचार के शक्तिशाली से भी मित्रता की जाती है। अन्यथा अनेकों बार तो आपसी मतभेद ही अनेकों शक्तिशालियों के विनाश का कारण बन जाते हैं। वैसे भी मतभेद हमेशा सिद्धांतों में होते हैं। सिद्धांतहीनता के लिये आपसी सहयोग की ही आवश्यकता होती है। अत्याचारी वर्ग हमेशा एक दूसरे का साथ देने के लिये तत्पर रहता है।
   भले ही महिषासुर शक्ति के मद में चूर था फिर भी उसका अंतःकरण अज्ञात भय से दग्ध था। नारियों की शक्ति और सामर्थ्य प्रत्यक्ष था। वैसे भी वह स्त्रियों से अजेय नहीं था। शक्ति के अहंकार के मध्य ही उसकी गुप्त शक्तिहीनता उसे कमजोर कर रही थी। इस समय वह स्त्रियों से उलझने के पक्ष में नहीं था। पर विरोध के लिये सर उठा रही स्त्रियों का दमन आवश्यक था। इस समय जो उसकी सहायता कर सकता था, जिसकी शक्ति पर वह पुर्ण विश्वास कर सकता था, तथा जिनकी शक्ति भी किसी वर के अनुशासन से बंधी न थी, वे निश्चित ही महिषासुर के मित्र शुंभ और निशुंभ ही थे।
  शुंभ और निंशुभ के पास संदेश भेजा गया तथा मित्र को आपत्ति में जान वे दोनों वीर भाई तुरंत ही मित्र की सहायता के लिये आ गये। यद्यपि दोनों वीर भी स्त्रियों से युद्ध करने के पक्ष में नहीं थे। इसे वे अपनी शक्ति का अपमान ही समझ रहे थे। पर शायद उन्हें लगा कि युद्ध जैसी स्थिति ही नहीं आयेगी। विरोधी स्त्रियों को उद्दंडता का दंड ही दिया जायेगा।
   एक मदिरालय के बाहर स्त्रियों ने धरना दे रखा था। मदिरालय के संचालक असुर को उन्होंने पकड़ लिया था। मदिरालय में रखी मदिरा को नालियों में फैलाया जा रहा था। वैसे इस दल में कात्यायनी नहीं थी। पर सत्य तो यही था कि अपनी शक्तियों को पहचान चुकी अनेकों स्त्रियां दुर्गा बन चुकी थीं।
   ” इन्हे रोको। कोई भी निकल न पाये। आज इन उद्दंड स्त्रियों और उनकी नैत्री कात्यायनी को उद्दंडता का दंड देना है। इन्हें चारों तरफ से घेर लो।”
  शुंभ और निशुंभ के अट्टहास को सुन भले ही देव भय से कांपने लगते हों। पर मदिरा को नष्ट कर रही स्त्रियों पर उसकी ललकार का कोई अंतर न पड़ा। वे पहले की तरह अपने कार्य को करती रहीं। चारों तरफ असुर सेना से घिर जाने के बाद भी स्त्रियां एकदम निर्भय थीं। लगता था कि शायद स्त्रियां शुंभ और निशुंभ की शक्ति से पूर्ण परिचित न थीं। शायद परिस्थिति की गंभीरता से परिचित न थीं। अथवा उन्हें उम्मीद होगी कि संकट की स्थिति में कात्यायनी उनकी सहायता के लिये आ जायेगी।
   स्त्रियों पर अपनी गर्जना का प्रभाव न पड़ते देख शुंभ और निंशुभ का धैर्य जबाब दे गया। तुरंत इन स्त्रियों को पकड़ने और मजबूत श्रृंखलाओं में बांधने की आज्ञा उसने अपने सैनिकों को दे दी। पर यह क्या। कोमलांगी नारियां असुर सैनिकों पर भारी रहीं। संघर्ष में अनेकों असुर मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे। अनेकों असुर घायल हो उन्हीं श्रृंखलाओं में बंधे अपने भाग्य को रो रहे थे। शुंभ और निशुंभ को अपने ही सैनिकों की बंधनमुक्त करा देने की प्रार्थना सुनाई दे रही थीं। 
  प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता है। स्त्रियों का सामर्थ्य और उनका पराक्रम प्रत्यक्ष था। अबला को सबला मानने के पर्याप्त आधार थे। तथा जग में अबलाओं को सबसे पहले सबला माना उन्हीं बंधन में बंधे असुरों ने। वे ही उन अबला मानी जाती रही उन सबला स्त्रियों की ही प्रार्थना कर रहे थे। उन्हें वचन दे रहे थे कि वे भविष्य में सभी असुरत्व के कृत्यों को त्याग धर्म और अच्छाई की राह पर चलेंगे। उनके धर्म स्थापना के लक्ष्य की प्राप्ति में भी उनका साथ देंगें। 
   शुंभ और निशुंभ के समक्ष ही असुर सैनिकों द्वारा नारियों का साथ देते हुए मदिरा को नष्ट करना शुंभ और निशुंभ के अहंकारी मन को विदीर्ण कर गया। नारियों से हार मानने के स्थान पर तो मृत्यु का वरण ही उन्हें उपयुक्त लगता था। वैसे भी उन्हें अपनी सामर्थ्य पर कुछ अधिक ही विश्वास था। अहंकार में दूर दोनों अधर्मी अभी भी अबला को सबला मानने को तैयार न थे। इन सब में उन्हें कुछ माया नजर आने लगी। लगने लगा कि कोई बड़ा धोखा है। जो दिख रहा है, वह शायद नहीं है। हमेशा खुद अधर्म की राह पर चलते आये दोनों अधर्मी शुद्धता को भी नकार रहे थे। देखकर भी अनदेखा कर रहे थे। 
   नारियों के मध्य में एक नवयुवती तेजस्विता की साक्षात मूर्ति, धैर्य का अवतार, उन स्त्रियों का नैतृत्व कर रही थी। अभी तक कात्यायनी के नाम से ही परिचित शुंभ और निशुंभ उसी को कात्यायनी समझ रहे थे। पहले से ही कुण्डला के प्रयासों ने तथा संभवतः अन्य देवियों द्वारा भी मानवी रूप रख सहयोग करने से नारियों का आंदोलन अपेक्षाकृत उससे भी अधिक उग्र था जितना कि असुर समझ रहे थे। इस समय अनेकों नारियां दुर्गा शक्ति बन असुरों का सामना करने को तैयार थीं। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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