बहुधा अति कठिन समझा जाने बाला कार्य अति सरल रहता है। बहुधा पूरी सृष्टि को अपनी शक्ति से आतंकित करते रहे लोगों का अंत बहुध ही आसान रहता है।
महिष और सिंह दोनों रूपक हैं विभिन्न शक्तियों के। जहां महिष शाकाहारी होते हुए भी अमर्यादित रूप से हिंसक होता है वहीं सिंह मांसाहारी पशु होते हुए भी केवल अपनी क्षुधा शांत करने के लिये हिंसा करता है। वास्तव में सिंह को प्रकृति ने ही मिषभोजी बनाया है। यह उसका दोष नहीं है। क्षुधा शांत होने पर खुद के नजदीक से गुजरते मृग शावकों पर भी सिंह का शांत रवैया यही बताता है कि सिंह एक सात्विक शक्ति का प्रतीक है। वन्य जीव भी सिंह की क्षुधा समझ जान जाते हैं कि उससे कब दूर रहना है और कब भय की कोई बात नहीं।
नीति कहती हैं – बिभुक्षितः किम् न करोति पापं।
क्षुधायुक्त जीव अपनी क्षुधा मिटाने को कोई भी पाप करने को बाध्य होता है। यथार्थ तो यही है कि खुद के जीवन की रक्षा करना ही प्रत्येक जीव का प्रथम धर्म है। शेष धर्म जीवन रक्षा धर्म के बाद ही आते हैं।
माना यह भी जाता है कि समूची सृष्टि में ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो कि बिना हिंसा किये अपनी क्षुधा मिटा सके। आशय यह नहीं है कि हिंसा करनी चाहिये। आशय यही है कि मनुष्य को जहां तक संभव हो, अहिंसा धर्म का पालन करना चाहिये। पर वास्तविकता यही है कि अन्न, सब्जी, व फलों के उत्पादन से आरंभ कर भोजन निर्माण की प्रक्रिया तक जाने अनजाने अनेकों हिंसा होती हैं। उसी के प्रायश्चित स्वरूप चूल्हे की अग्नि में आहुति देने का विधान है। आज के गैस चूल्हे के युग में यह विधान भी निर्वहन असंभव हो रहा है।
महिष धर्म का आडम्बर कर रहे उस अधर्मी का प्रतीक है जिसका अंत हमेशा ही सिंह के हाथों होता है। नारी शक्ति का प्रतीक सिंहवाहिनी माता कात्यायनी व महिष पर सवार महिषासुर के मध्य समर में विजय सिंह पर सवार माता कात्यायनी की ही हुई। महिषासुर का अंत हुआ। बचे हुए असुर धरती से भाग पाताल में छिप गये। पृथ्वी पर धर्म की पुनः स्थापना हुई।
मुख्य बात थी कि शरीर और मन से कमजोर समझी जाती स्त्रियों ने मिलकर अधर्म का विरोध किया। जिन अधर्मियों के समक्ष खुद को शक्तिशाली बताते रहे पुरुषों ने आत्मसमर्पण कर दिया था, उन्हीं अधर्मियों का विरोध करने का साहस स्त्रियों ने किया। पहले खुद के घर से आरंभ कर फिर समाज में व्याप्त अधर्म का पूरी तरह उन्मूलन कर दिया।
लगता नहीं कि माता कात्यायनी की कहानी इसके बाद समाप्त हो गयी होगी। सृष्टि में जन्म लेने बाला मृत्यु के निकट आने तक लगातार जीवन में विभिन्न संघर्ष करता है। धरती पर जन्म लेने बाला प्रत्येक जीव अपने विभिन्न जीवन धर्मों का पालन करता है। लगता है कि महिषासुर के अंत के बाद भी माता कात्यायनी की कहानी जारी रही होगी। समाज में व्याप्त कुरीतियों से संघर्ष करने के लिये किसी का पूरा जीवन ही कम होता है। फिर एक सत्य यह भी है कि समय समय पर व्याप्त धारणाओं में बदलाव आवश्यक है।
लगता है कि माता कात्यायनी की कहानी में अनेकों गहरी बातें कहीं लोप हो गयीं। निश्चित ही विप्र कात्यायन ने पुत्र के स्थान पर पुत्री की कामना की थी। सामान्य सामाजिक सुरक्षा की धारणा से परे जाकर अपनी पुत्री को सामर्थ्य वान बनाया था। लगता है माता कात्यायनी की कहानी महिषासुर वध से आगे बढकर एक बेटी द्वारा बुजुर्ग माता पिता को सुरक्षा देने की अवधारणा तक पहुंची होगी। लगता है कि यथार्थ कहानी का संदेश स्त्रियों के सामर्थ्य को अभिव्यक्त करने के साथ साथ एक ऐसे सामाजिक संगठन की स्थापना भी रहा होगा जिसमें एक बेटी भी अपने माता पिता का अबलंबन बन सकती है। एक स्त्री की सामर्थ्य हमेशा पुरुष से अधिक होती है। फिर विवाहोपरांत भी एक बेटी अपने ससुराल की जिम्मेदारी निभाकर भी अपने जन्म दाता माता पिता की देखभाल भी कर सकती है।स्त्रियाँ एक साथ दुहरी भूमिका बराबर सामर्थ्य से निभा सकती हैं।
कल्पना के विस्तार द्वारा विभिन्न परिस्थितियों के विस्तार की अधिक आवश्यकता नहीं है। कुण्डला और पुष्कर माली की कहानी पूरी तरह से लौकिक प्रेम कहानी से आरंभ होकर वैराग्य के मार्ग तक पहुंचकर पूर्ण हुई। प्रेम मार्ग का अवलंबन लेकर पुष्कर माली मुक्ति को प्राप्त हुआ। अब कुण्डला के जीवन का उद्देश्य खुद को वैराग्य की अग्नि में ही शुद्ध करना रह गया था। अपने पति को अपने विचारों के प्रवाह से सद्गति प्रदान कराने बाली तथा खुद के जीवन को भक्ति और वैराग्य के प्रवाह में लगाने जा रही कुण्डला को अभी ज्ञात ही नहीं है कि अभी वह एक अन्य प्रेम कहानी में मुख्य भूमिका निभाने बाली है। अभी प्रेम से आरंभ होकर वैराग्य के लक्ष्य को प्राप्त करने की एक महान प्रेम कहानी में कुण्डला न केवल नायिका को वैराग्य का पाठ पढायेगी, उसे स्त्रियों के सामर्थ्य से परिचित करायेगी अपितु नायिका और नायक के मिलन की राह भी वही बनेगी।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’