गोमती नदी के तट पर बसा उत्तर प्रदेश का महानगर लखनऊ, अनेकों नबाबों की राजधानी रहा है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश की राजधानी है। आदर सत्कार देने की लखनवी तहजीब के कारण पूरे भारत भर में विख्यात है।
लखनऊ शहर का इतिहास कितना प्राचीन है, यह इतिहासकारों एवं पुरातत्वविदों के लिये शोध का विषय है। वैसे किसी भी पौराणिक गाथा में कहीं भी सीधे सीधे लखनऊ शहर का उल्लेख नहीं है। यही कहा जा सकता है कि शायद लखनऊ शहर का कोई पौराणिक इतिहास नहीं है।
पर वैराग्य पथ की कहानी गोमती नटी के किनारे बसे एक छोटे, पर शक्तिशाली और समृद्धशाली राज्य के इर्द गिर्द घूमती है। संभावना है कि लखनऊ नगर भी दिल्ली, मेरठ, अयोध्या, हस्तिनापुर की तरह अति प्राचीन नगर रहा हो। संभावना है कि उस छोटे पर शक्तिशाली राज्य की राजधानी वर्तमान लखनऊ शहर के आस पास ही रही हो।
राज्य भले ही छोटा था पर प्रजा को किसी भी तरह का कष्ट न था। राजा शत्रुजित रणभूमि में काल को भी परास्त कर पाने में सक्षम थे। राजा शत्रुजित की वीरता का सबसे बड़ा प्रमाण यही था कि जब लगभग पूरी धरती असुरों के अत्याचार से त्रस्त थी, उस समय भी गोमती नदी के तटीय लोग सुरक्षित थे। तीनों लोकों में किसी भी पुरुष से न हारने बाले असुर भी राजा शत्रुजित के राज्य से दूर ही रहे।
राजा की शक्ति का अर्थ राज्य विस्तार के अतिरिक्त प्रजा के सुखों का ध्यान रखना ही है, बस यही धारणा महाराज शत्रुजित के राज्य का विस्तार न करने देती। दूसरी तरफ यह भी सत्य था कि अपने राज्य में उन्होंने किसी भी शक्तिशाली राजा को राज्य विस्तार के विचार से प्रवेश न करने दिया। अपनी प्रजा की रक्षा के लिये अहिंसावादी से लगते राजा शत्रुजित काल के लिये भी काल बन जाते। राजा शत्रुजित के बाहुबल तथा कुलगुरु तुंबुर के तपोबल से रक्षित गोमती नदी के तट पर बसा राजा शत्रुजित का राज्य सर्वथा अजेय था।
यदि वर्तमान ही भविष्य की भूमिका बनता है, यदि आज को देखकर भविष्य का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है तो एक अनुमान था कि राज्य का भविष्य उससे भी अधिक अच्छा होगा जितना कि वर्तमान में दिखाई देता है। इस अनुमान का कारण था राजकुमार ऋतुध्वज। राजकुमार परम पराक्रमी और प्रजा के दुख देख द्रवित होने बाले थे। एक राजा के पुत्र होने के बाद भी उनके मानस पर अभिमान की कोई छाया तक न थी। कुलगुरु तुंबुर के आश्रम में रहकर शिक्षाध्यन करते करते ही उनके पराक्रम और अस्त्र ज्ञान के समाचार पूरे राज्य में प्रसारित हो चुके थे। सच्चाई है कि गुरु भी योग्य शिष्य को ही दुर्लभ शिक्षा देते हैं। कुलगुरु तुंबुर की कृपा से राजकुमार ऐसे ऐसे दिव्यास्त्रों के ज्ञाता बन चुके थे जिनके विषय में बहुत कम योद्धाओं को ज्ञान था।
वैसे पुत्र को पिता का ही प्रतिबिंब कहा जाता है। पर सत्य यह भी है पीढियों के बदलाव के साथ कुछ तो विचारों में भिन्नता होती ही है। हमेशा नव पीढी अपने पूर्वजों से अलग करती ही है। वैसे राजा और राजकुमार दोनों एक दूसरे के पूरक थे। पर राज्य विस्तार के विषय में दोनों के विचार कुछ अलग थे।
राजकुमार ऋतुध्वज अपने दो मित्रों सुजान और कापाली के साथ गोमती नदी के तट पर विचरण कर रहे थे। सुजान और कापाली दोनों सगे भाई राजकुमार के परम मित्र थे। रहस्य था कि दोनों भी सुदूर नाग देश के राजकुमार थे।
नाग देश का नाम आते ही सर्पों की प्रजाति नाग ही ध्यान में आती है। अनेकों कहानियों में नागों को मनुष्य रूप धारण करने बाला भी बताया जाता है। रूप बदलने बाले नाग यथार्थ हैं अथवा केवल कहानियों का विषय है। लेखक को नहीं लगता कि इन दोनों भाइयों का नागलोक से कोई संबंध था। वैसे भी पौराणिक गाथाओं में नागराज के रूप में शेषनाग के भाई वासुकि का ही नाम आता है। लगता है कि पृथ्वी पर ही किसी राज्य का नाम भी नाग राज्य रहा होगा। वहीं के राजा अश्वतर के पुत्र दोनों राजकुमार सुजान और कापाली गुरु तुंबुर के गुरुकुल में विद्याध्ययन कर रहे थे। शस्त्र विद्या में ख्याति प्राप्त गुरुओं से अस्त्र शिक्षा प्राप्त करने दूर दूर के राज्यों से राजकुमार आते थे।
सुबह का समय। गोमती नदी के जल को स्पर्श कर ठंडी ठंडी हवा आ रही थी। तट पर विचरते विचरते अचानक राजकुमार रुक गये। उन्हें कुछ ऐसा दिखा जो आज तक कभी न देखा था। सत्य है या स्वप्न। यदि यह सत्य है तो अभी तक क्यों न दिखा था। यदि स्वप्न है तो जाग्रत के समान विभिन्न अनुभव क्यों। अथवा कोई माया है। ऐसा सौंदर्य पृथ्वी लोक पर न तो देखा गया है और न सुना गया है।
राजकुमार गोमती नदी के तट पर खड़ी परम सुंदरी युवती को देख अपना मन हार गये।संभवतः उनके मानस पर प्रेम की असाध्य बीमारी का प्रभाव होने लगा। तभी तो आज तक किसी भी कन्या के रूप के आकर्षण से दूर रहे राजकुमार उस कन्या के आकर्षण में बंधने लगे। युवती पर सुजान और कापाली की भी दृष्टि पहुंची। भगिनी रहित दोनों भाइयों को वह अतुल सौंदर्य की धनी युवती अपनी ही बहन जैसी प्रतीत हुई। एक ही सौदर्य ने तीनों राजकुमारों के चित्त पर अलग अलग प्रभाव किया। परम सुंदरी युवती का परिचय पाने को तीनों मित्र उत्सुक थे। फिर उन तीनों को उस युवती के निकट पहुंचने में समय नहीं लगा।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’