जब किसी का अंतःकरण केवल और केवल अपने लक्ष्य की तरफ केंद्रित होता है, जब कोई अपना लक्ष्य न पा पाने की असीम वेदना को किसी से व्यक्त भी नहीं कर पाता है, उसी समय नियति उसे खुद व खुद उसके लक्ष्य के पास तक पहुंचा देती है। जिससे वह व्यक्ति खुद अंत समय तक अनजान रहता है। और जब यकायक वह अपने लक्ष्य को अपने समक्ष देखता है, तब वह समझ भी नहीं पाता कि वह जो देख रहा है, वह कितना यथार्थ है। अक्सर यथार्थ को स्वप्न समझने की भ्रांति भी होने लगती है। 
  उस दिन महाराज शत्रुजित का दरबार लगा ही था। महाराज राज्य के विषय में अपने मंत्रियों से चर्चा कर ही रहे थे। कुछ बातों पर चर्चा शुरू ही हुई थी कि गुरुदेव तुंबुर बहुत सारे मुनियों के साथ राज दरवार आ गये। सभी महर्षियों के चेहरे पर तप का अद्भुत आलोक प्रकाशित हो रहा था। राजा ने गुरुदेव सहित सभी तपस्वियों के चरण स्पर्श किये। राजकुमार ने अपने पिता का अनुसरण किया। 
  ” महाराज। ये सारे तपस्वी ऋषियों की तपोभूमि और समय समय पर राजर्षियों को आश्रय दात्री निमिषारण्य से आये हैं। आप परम तपश्वी महर्षि गालव हैं। इस समय निमिषारण्य एक विशेष परिस्थितियों से गुजर रहा है। हालांकि ये तपस्या में श्रेष्ठ मुनि ऐसी विपदाओं को अपनी तपस्या के प्रभाव से क्षण भर में नष्ट कर सकते हैं। पर प्रायः राजाओं या राजकुमारों के हित की कामना से ही किसी राजा के दरवाजे पर आते हैं। निश्चित ही इस बार इन तपस्वियों ने आपका ही कोई हित देखा है जो अनेकों राजाओं को छोड़ आपसे सहायता मांगने आये हैं। ” गुरु तुंबुर के परिचय से स्पष्ट हो गया कि महर्षि गालव तथा दूसरे तपस्वी महराज से निमिषारण्य के लिये कोई सहायता मांगने आये हैं। साथ ही साथ यह भी स्पष्ट था कि विपदा बड़ी है। 
” तपस्या में श्रेष्ठ तपस्वियों। आप अपना प्रयोजन बतायें। मैं निश्चित ही आपके संकल्प को साकार करूंगा।” राजा ने कह तो दिया। पर जानता न था कि तपस्वियों का प्रयोजन जान वह खुद दुख के सागर में डूबने लगेगा। आखिर वह किस तरह राजकुमार ऋतुध्वज को तपश्वियों के साथ अकेले निमिषारण्य भेज सकता है। भले ही राजकुमार परम वीर थे। भले ही उन्हें अस्त्र शस्त्रों का ज्ञान है। फिर भी पिता का मन तो हमेशा से सशंकित ही रहता है। फिर यह भी नहीं ज्ञात कि जिन वन्य शूकरों के उपद्रव से परेशान ये तपस्वी यहाॅ आये हैं, वे वास्तव में ही शूकर हैं भी या नहीं। क्योंकि निश्चित ही वन्य शूकर काफी शक्तिशाली पशु है। सिंह और व्याघ्र जैसे हिंसक पशुओं का भी प्रतिकार करता है। पर शूकरों द्वारा आखेट और वह भी सिंह और व्याघ्र जैसे पशुओं का। नहीं…. ।यह पूर्ण सत्य तो नहीं है। तपस्वियों के अनुसार भी यह सत्य नहीं है। निश्चित ही तपस्वियों का अनुमान कि महिषासुर के मर्दन के बाद शेष बचे असुरों का यह काम है, सत्य ही लगता है। फिर ऐसे असुरों का सामना करने के लिये मुनियों द्वारा केवल राजकुमार ऋतुध्वज की याचना। अरे… ।आजतक अपने वचन से पीछे न हटने बाले मेरे मन में यह कमजोरी जैसी क्यों आ रही है। निश्चित ही यही एक पिता का स्नेह है। 
   दूसरी तरफ राजा का मन उसकी सोच के लिये धिक्कार भी रहा था। आखिर क्षत्रिय केवल और केवल देश, राज्य और समाज की रक्षा के लिये ही तो जीते हैं। आज जबकि निमिषारण्य से तपस्वियों का समुदाय राजकुमार की याचना करने आया है, उस समय वह राजकुमार के जीवन के भय से पीछे हट रहा है। रक्षा करने के मिले अवसर को राजकुमार से छीन रहा है। इस तरह राजकुमार का जीवन तो बचेगा। पर इस तरह जीवित रहना क्या वास्तव में एक क्षत्रिय राजकुमार का जीवन है। निश्चित ही एक बार कायरता को सीख कोई भी क्षत्रिय जीवन में कभी भी अपने कर्तव्यों को पूर्ण नहीं कर पाता है। फिर कर्तव्यहीन का क्या जीना और क्या मरना। 
   रहस्य की बात है कि इस कार्य के लिये तपस्वियों ने राजकुमार ऋतुध्वज को ही क्यों चुना। तपस्वियों का मनोरथ हमेशा कुछ बड़े की चाह में ही होता है। तपस्वियों के साथ से  राजकुमार का कोई अहित तो नहीं होगा। फिर भी मन की दुविधा। वह मन जो हमेशा एक क्षत्रिय को समाज के लिये मर मिटने का पाठ सीखता आया है, आज अपने पुत्र को उसी मार्ग पर भेजते हुए मन क्यों विह्वल हो रहा है। क्यों बार बार पुत्र के जीवन की चाह मन में उठ रही है। यह जानते हुए भी कि समाज और राष्ट्र की रक्षा में प्राण त्यागने बाले सभी क्षत्रिय किसी न किसी के पुत्र होते ही हैं। कइयों की नवविवाहिता पत्नी उनकी रणभूमि से वापसी की प्रतीक्षा करती रहती हैं। क्षत्रिय को मन से इतना मजबूत होना ही चाहिये कि वह रक्षा के लिये अपनी संतान को भी हसते हसते भेज सके। संतान के शहीद हो जाने पर भी मन में शोक को धर उसकी शहादत पर गर्व कर सके। 
  अरे दुख की बात है कि सब जानते और समझते हुए भी मन वास्तव में विकल है। मन को कोई समझाने बाला नहीं है। 
   महाराज शत्रुजित के पितृप्रेम से भरे मन को समझा पाना कठिन था। और वह कठिन कार्य किया खुद राजकुमार ऋतुध्वज ने। जब राजकुमार ने पिता के चरणों में प्रणाम कर निमिषारण्य जाने की आज्ञा मांगी तब महाराज के हाथ खुद व खुद उन्हें आशीष देने को उठ गये। आंखों से छलकते हुए आंसुओं को हृदय के समुद्र में छिपा दिया। ऊपर से अविचल दिखाते हुए बोले। 
  ” राजकुमार। अपनी माॅ से आशीर्वाद ले आओ। पृथ्वी पर माॅ ईश्वर का रूप होती है। माॅ का आशीर्वाद हर विपदा में रक्षा करता है।” 
  फिर एक बार कुछ भावनाओं का प्रवाह आया। रोकते रोकते हुए भी दो अश्रु विंदु महाराज शत्रुजित की दोनों आंखों से निकल उनके गालों को गीला कर गये। जिन्हें पोंछने में महाराज ने तनिक भी देर न की। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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